जीव यात्रा | Jeev Yatra

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Jeev Yatra by फुलिपाटी वैन्केट सुब्बयया

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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3 गे 2 इसी को क्षेत्र क्षेत्रक्ष विभाग योग कहा गया है । क्षेत्रज्ञ किसान है और क्षेत्र अर्थात्‌ शरीर खेत है। शरीर को क्षेत्र और उस क्षेत्र का मालिक अपने को गभीर रूप मे समझना चाहिए । मालिक अपने क्षेत्र मे किस तरह के बीज बोने चाहिए - इस सम्बन्ध में अच्छा ज्ञान रखता है ।. यहा पुण्य रूप बीज बोकरः आनन्द रूपी फल प्राप्त कर सकता है। इस विपय के बारे मे भी -आगे अच्छी तरह विवेचना होगी । क्षेत्र-्षेत्रन योग का ज्ञान सबको नही होता है। यही अविद्या या अज्ञान का प्रभाव है । देह को अपना स्वरूप समझना अज्ञान का प्रथम लक्षण है। जब मनृष्य देह को ही अपना स्वरूप समज्ञता है तो उसको सुख पहुँचाने वाले भोगो को अपने लिए आवश्यक समझता है। इसी भ्रम से सब अनथे उत्पन्न होते है। इस तरह देह बद्धता या कर्म बद्धता जीव को जव तक रहती है तब तक नित्य शाति असभव होती है । इन दोनों वन्धनों से विमुक्त होना ही मुद्ति कहलाती है । इस मुक्ति की अवस्था मे जीव अपने उद्गम स्थान परमात्मा मे तादात्म्य हो जाता है। उसी को सद्गति कहते है । इस तरह की सद्गति से हों मानव को नित्य शाति एव परमानन्द की प्राप्ति सम्भव हो सकती है । देह बद्धता की अवस्था मे किसी जीव को नित्य सुख की उपलब्धि नहीं होती । सुष्टि में दृष्टि दालिए और देखिए । ०५. घनी -दरिद्र राजा-रक स्त्री-पुरुप सभी बजान है देहभावना से




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