आचार्य श्री जवाहरलाल जी | Aacharya Shri Jawaharlal Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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नगर मे चारो और राज्य की दुर्व्यवस्था की निन्‍्दा हो रही थी। लोग कहते थे कि रानी के प्राप्त होने पर तो राजा को राज्य की दशा सुधारना चाहिए थी, पजा को सुखी बनाने का प्रयत्न करना चाहिए था और राजकाल देखना चाहिए था । परन्तु इसके विपरीत रानी के मिलते ही राजा विषय- लम्पट बन गया हे। राज्य का कार्य तो नोकरो के भरोसे छोड रखा हे । उसकी नजर तो केवल रानी को ही ताका करती है। राजा ओर पजा मे पिता-पुत्र का सा सबध होता है। पुत्र यदि अनीति करता है या अपने कर्तव्य से पतित होता है तो पिता उसे शिक्षा द्वारा ऐसा करने से रोकता हे और पिता अपने दायित्व से विमुख और अनीति मे प्रवृत्त हो तो पुत्र के लिये भी पिता के ऐसे कार्यों का विरोध करने की धमज्ञा है | उस समय की प्रजा अपने और राजा के कर्तव्य को जानती थी, इसलिए उसे अपनी ही स्त्री के मोहजाल मे फसे राजा की कटु आलोचना करने मे कुछ भी भय नही हुआ । लेकिन आज की प्रजा को अपने व राजा के कर्तव्य का ज्ञान न होने से वह राजा के अनेक अन्यायो का भी विरोध नहीं करती हे | अन्यायी कहने का साहस भी नहीं कर सकती हे। दासियो ने नगर मे घूमकर जो कुछ देखा और सुना वह सब रानी को कह सुनाया । प्रजा की भावना ओर बातो को सुनकर रानी उसकी प्रशसा करने लगी एव पति को भान मे लाने के लिए अधीर हो उठी | लेकिन इसके साथ ही उन्हे एक दूसरी चिन्ता ओर हो गई कि पति के मोह को किस प्रकार दूर किया जाएं? अन्त मे सोचते-सोचते उन्हे उपाय सूरु ही गया और वे उसे कार्य रूप मे परिणत करने के लिए तत्पर हो गईं | बडे आदमियो को कुमार्ग से सुमार्ग पर लाना उतना ही कठिन हे जितना सूखी लकडी को झुकाना ओर फिर उसमे भी राजाओ को सुधारना तो ओर भी कठिन हे जो अपनी हठ के लिए प्रसिद्ध हें । लेकिन उद्योगी मनुष्य के लिए कोई भी कार्य असभव नही हे। उनका तो सिद्धान्त रहता हे- * शरीर वा पातयामि, कार्य वा साधयामि |” या तो कार्य सिद्ध करके ही रहेगे अथवा उसी पर मर मिटेगे। चर ९ कप असर गा हरिश्चन्द्-तारा ५




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