श्री हरि मार्क्सवाद और रामराज्य | Sri Hari Marksavad Aur Ramarajya
श्रेणी : इतिहास / History
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
96 MB
कुल पष्ठ :
860
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)पाश्यात्य-दुदान दे
ने कम दा,
विश्व क्या हैः आदिका चिन्तन तथा विवेचन 'ददन' है। इसी घकार छुछ पविद्ार
पृ व्यापारका अध्ययन दब उसके भी दें
कहतें हैं । पर इन मर्तेमिं भी आंदिक सत्यतामात्र है |
आदरणीय भी नददीं हो सकते । जले अंघीने हार्थीके -जितने अड् जिस रूपसें
अनुभव किये उसी ढंगसे उनका वर्णन किया । न इसे सम्पूर्ण मिथ्या ही कहा
जा सकता हैं और न पूर्णतया सत्य ही । विशेषतया पाश्चात्य द्नोंकि सम्बन्ध
तो अत्यन्त बैरूप हैं । भारतीय दर्दनोंमें यद्यपि इतना अधिक वैरुप्य नहीं हैं;
क्योंकि उनके मूल अनादि-अपोरुपेय वेद: तदाघारित दास: योगज ऋतम्मरा
प्रज्ञा तथा. लोकिक प्रत्यक्षातुमाव हैं तथापि यहाँ भी सभी विपयोमं सभी
झपियोका समान आदर नहीं: अपितु जिस विषय्म जिस ऋषिने धारणा; ध्यान:
समाधि आदिद्वारा तस्वानुयूति प्रात की; उसी विषय उसका सार्वभौम आदर हैं |
जैसे शब्दके सम्बन्धसें पाणिनि; काव्यायन; पतल्नलि आदिका एवं. वाक्य-
विचार आदिम जेसिनि: व्यास आदिका |
पी
यो
पाश्चास्व-डदानोमं . आविकांशका ,. जन्स. कुतूहल-बुद्धि एवं ज्ञात-
पिपासा-शान्तिकों इृष्टिति ही हुआ है । अनेक पाश्चात्यदर्शनोंका प्रादुर्माव
राजनतिक उद्देश्यकी पूतिके लिये भी हुआ हैं; किंतु भारतीय दर्दनोका अन्तिम
उद्देश्य दुःख-निषत्ति: सृव्यु-विजय तथा मोक्षप्राप्ति ही हैं; अवान्तर उद्देश्य अर्थ
काम-घर्माजन मी हैं |
बेदान्तमतसें शानस्वरूप आत्मा निर्विकार है | समः अन्तःकरण आत्मास
भिन्न प्राकतिक है । चित: अहंकार आदिके समान ही पद्चज्ानित्द्रियों: पश्च-
कर्मस्ट्रियों भी प्रकृतिके सूक्ष्म तत्त्वोंसे ही बनी हैं । स्थूल देहसे भिन्न पश्चप्राणसहित
उक्त मनतः बुद्धि; चित्त: अहंकार एवं कमें-ज्ञानिन्द्रियांकों मिलाकर सृुश्म या लिड्ठ
शरीर कहा जाता है । स्थूल देहके नष्ट होनेपर भी यह सूक्ष्म देह नह नहीं होता |
सुष्ट्सि लेकर प्रल्यकाउतक यह सुकष्म देह रहता हैं । इसीके आधारपर व्यापक
आत्माका गमनागमनादि बनता है । इससे भिन्न एक रजस्तमोलेशानुबिद्ध अतएव
अविशुद्ध सच्वप्रधान अविद्यारुपी कारण थारीर भी मान्य हैं; जिसका तत्व
साक्षास्कारसे ही बाध दाता है । इस तरह वह अनादि; सान्त हैं । मूल प्रझति भी
अनादि) ४ तान्त हैं । सम्पूर्ण प्रपश्न पश्चभूतास्मक हैं । उन सूतोंकी आइक इन्द्रियाँ
भी सूश्म सूतोंका ही परिणाम हैं । भिन्न कारणोंमें सकार्यानुकूल दाक्ति होती है ।
इसी तरह ब्रह्ममें भी सर्वप्रंपश्ोस्पादिनी शक्ति होती हैं । इसीको मूल प्रकृति कहां
जाता हैं । चेतन ईश्वर सर्वान्तर्थामी: सबंदाक्तिमान एवं सबंब्यापी होता है |
क्मेंकि अनुसार जन्म-सरणके समान ही संसारका खुष्टियल्य होता हैं । संसार
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