जैनेन्द्र की कहानियां | Jainendra Ki Kahaniaan

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Jainendra Ki Kahaniaan by जैनेन्द्र कुमार - Jainendra Kumar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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३२ जैनेन्द्र की कहानियाँ सातवाँ भाग लीला--में उधर न जाऊँगी । में श्रपने को मोड गी । में प्राथेना में शामिल होऊँगी । में श्राश्रम-वासिनी बन गी । उन्हें श्राप जरूर इनकार लिख दें । में क्लेरा से कम नहीं होऊँगी । श्राप फौरन इनकार का तार दे दें। कंलाश--घबराग्रों नहीं । लीला--वचन दीजिए कि श्राप चाल्से को मुक्त तक न आने देंगे। मुक्त से न मिलने दोगे । में उनकी निगाह के नीचे बेबस हो जाती हूँ उनकी श्राँख में न जाने क्या है । लेकिन श्राप देखेंगे कि में बलेरा से कम. नहीं हूँ । केलाश--सुनो । श्रगर श्राश्रम की बतकर श्राश्रम में रहना चाहती हो तो कल से श्रपने उपयुक्त काम चुन लो । यह याद रखो कि तुम . सदा झाजाद हो श्रपना शासन शक्ति देता है दूसरे का शासन बन्धन है । हम सबको स्वाधीन चाहते हें । इसलिए कसा भी खटका तुम्हें मन. में नहीं रखना चाहिए । मेरी सलाह हैं कि कल से कोई काम तुम श्रपने कै ऊपर लें लो । उससे चित्त स्थिर होगा । लीला--बचन दीजिए श्राप चात्से को मुक्त से दूर रखेंगे । कलाश--में दूरी में विदवास नहीं रखता । में पास होनें में विश्वास करता हूुँ। ऐसे पास कि एक | में तुम्हें किसी से दूर नहीं सब के पास . देखना चाहता हूँ । उससे भी श्रधिक पास जितने उनके . हृदय । जेसे उनकी झात्मा । कहते हुए लीला के कन्घे पर हाथ रख लेते हैं . .. किससे दूरी की जरूरत हैं ? सब एक है । घबराधों नहीं । जो श्रपने को निवेदित कर सकता है वह ईदवर का श्राशीर्वाद पाता है । ईछ-कपा .. से पाप क्षार हो जाता हूै। लीला श्रपने मूह को हाथों में छिपा लेती _. है। ईदवर जिसका साक्षी है वह जग के प्रति निर्भीक बनता है । ईइवर _ के प्रति कातर मानव के प्रति निर्मम । क्यों घबराती हो ? _.. लीला--में भ्रंबला हूँ । न ल्‍




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