मंथन का नवनीत | Manthn Ka Navniti

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Manthn Ka Navniti by इन्दरचंद वैद - Indarchand Vaid

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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है कि हम उनसे याचना नहीं करते क्योंकि याचना सामने होती है, जो प्रकट एव प्रस्तुत है, उससे होती है, अरिहन्त देवों के प्रति प्रार्थना में ऐसा कुछ नहीं है । प्रार्थना में शब्द ही होते हैं जो भिन्न-भिन्न रूपों में अपने अर्थ का ज्ञान कराते हैं। अभिधा में प्रयुक्त एक शब्द जो लक्षणा में नया अर्थ देता है, व्यजनात्मक प्रयोग मे सर्वथा भिन्न अर्थ दे सकता है। कबीर जैसे संतों के ऐसे अनेक पद मिर्लेंगे जिनमें बात सीधे रूप में नहीं कही गई है। उदाहरणार्थ कबीर की उलट बासिया अथवा यह पक्ति “उल्टी गगा समुदहो सोखे...... । गंगा आदि नदियों का प्रवाह समुद्र की ओर होता है। यदि कथा के मर्म को न समझा जाय तो यह पक्ति एक पागल का प्रलाप लगती है। परन्तु जब अलमस्ती का आलम होता है, अतर अनुभूति से आप्लावित हो जाता है तब जो शब्द वाणी ग्रहण करता है उसका अर्थ ही बदल जाता है। कवि विनयचत्द जी जब प्रार्थना करते हैं 'त्रिलोकीनाथ तू कहिये, हमारी बाह दृढ़ गहिये' तब वे क्या कह रहे होते हैं ? क्या सिद्ध भगवान या अरिहत देव हमारी बाह ग्रहण कर सकते हैं ? फिर “बाह ग्रहण करने की प्रार्थना क्यों ? परन्तु तब इसका मर्थ समझ में आ जाता है जब हम इनका सबधघ आत्मा से जोडते हैं। आत्मा के तार आपस में जुड़े रहते हैं। भावना यह है कि वे तार विच्छिन्न न हों। उत्तराध्ययन सूत्र में यही बात भिन्न रूप में कही गई है। सूई यदि ऐसे ही कहीं गिर जाये तो उसे ढूँढ़ पाना कठिन है परन्तु यदि उसके साथ धागा भी पिरोया हुआ हो तो वह सरलता से ढूँढ़ी जा सकती है। ऐसे ही यदि बाँह का सहारा हमारे साथ रहे तो हम भटक भी जाय तो भी सही मार्ग पर लाये जा सकते हैं। पतग के सबध में भी यही सच है। रहीम कवि ठीक ही कहा है “उड़ी गुड़ी कितहू फिरै, तऊ उड़ायक हाथ ।' पतग कहीं भी उड़ती रहे परन्तु जब तक उसकी डोर उड़ाने वाले के हाथ में है वह उसे खींच कर सही ठिकाने पर ला सकता है। यदि डोर ही हाथ से छूट जाय तो पतंग की क्या दशा होगी, बताना आवश्यक नहीं है। यही स्थिति जीवन की भी है। प्रार्थना करने का मूल उद्धेश्य भी यही है कि मनुष्य स्वय विनयपूर्वक भगवान से जोड़े रहे, उसके साथ डोर से बधा रहे। प्रार्थना के द्वारा व्यक्ति स्वयं के अहंकार को गलित कर, कृपा की आकाक्षा करता है। 'मैं' संबोधन से बहुत बड़ी भ्रान्ति हो सकती है क्योंकि जहाँ मैं आत्मा का सूचक है वहीं अह का बोधक भी बन सकता है। यही “अह' जब (17)




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