आदर्श जीवन या विजयवल्ल्भ सूरी चरित्र | Adarsh Jivan Ya Vijayvallabh suri charitra

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Adarsh Jivan Ya Vijayvallabh suri charitra by श्रीयुत कृष्णलाल वर्मा - Shriyut Krishnalal Verma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'आदर्श-जीवन प्रथम खंड ( सं, १९२७ से सं, १९४४ तक ) बढ़ोदेके जानीसेरीका उपाश्रय नरनारियोंसे भराहुआ थ महात्माकी नछद गंभीर वाणीका श्रवण करनेके ढिए लोग आगे बैठनेका प्रयत्न करनेमें एक दूसरेको धकेल रहे थे । . इस चकापेठमें लोगोंकी उपदेशासतकी बहुत 'ही थोड़ी दूँदूं पान कानेको मिछ रही थीं । ऐसे प्मयमें भी एक दीवारके सहारे एक १५ वर्षीय वाठक एकाग्रचित्से उप्त अम्रत वाणीका पान कर रहा था | उसकी आँखें महात्माके भग्य तेनोदीप्त मुख मंद पर स्पिर थीं और उसके कान अस्खद्ित भावसे उस समतकों पीकर अपने अन्तत्पठमें पहुँचा रहे थे और यहाँसे अनन्त जीवनके बद्ध कम मलको, उस्त अस्तद्वारा दीछाकर, माहर कैंक देनेका यत्न कर रहे थे । व्यारूयान समाप्त हुआ । श्रोता लोग महात्माको वंदना कर, एक एक करके अपने प्र चलें गये, मगर वह बाढठ़क उसी तरह स्थिर बैठा रहा । ः महात्माने पूछाः-*' बाठक क्यों बैठ हो ! ””




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