भाषा | Bhaashaa

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रामनाथ सहाय - Ramnath Sahaay

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विश्वनाथ प्रसाद - Vishvanath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भाषा का अध्ययन 5 (फिपडटाथण ) (छठी सदी ई०) की कृतियाँ पुरे मध्ययुग में पाठ्य-पुस्तक के रूप मे प्रयूक्त होती रही । मध्ययूग मे, जबकि लेटिन अपने पुरातनरूप से उन रूपों मे परिवर्तित हो रही थी जिसे हम आज रोमानी-भाषाएं (फ्रेच, इतालवी, स्पेनी आदि) कहते है, परम्परा यह थी कि जो कुछ लिखा जाए वह यथासभव लेटिन के प्राचीन साहित्य-परिनिष्ठित रूप मे ही लिखा जाए । फलस्वरूप मध्य- यगीन विद्वानू लेटिन-देशो मे तथा अन्यत्र केवल साहित्य-परिनिष्ठित लटिन का ही अध्ययन करते थे । शिक्षा-शास्त्रज्ञ दाशंनिको ने लेटिन व्याकरण की कुछ विद्वेषताओ को खोज निकाला था जैसे कि सुज्ञा और विद्वेषणों का अन्तर, समन्विति (0००८०), अभिशासन (8०ए८णएपटण्छऔर समानाधिकरण (गुए०50ण०) . का अन्तर, आदि । किन्तु इनका योगदान उन प्राचीन वंया- करणो की तुलना मे बहुत कम था जिन्हें कम-से-कम अधीत भाषाओं का प्रत्यक्ष ज्ञान तो था । मध्ययूगीन विद्वान्‌ साहित्य-परिनिष्ठित लेटिन मे सानवभाषण का तकंसगत सामान्य रूप देखते थे । अभी हाल मे इस मत की परम्परा से कुछ सामान्य व्याकरण” (8९०८2) 8#8पा0275) लिखे गए' है जिनमे यह प्रदर्शित करने का प्रयत्न किया गया है कि विभिन्न भाषाओ, विशेषत लंटिन, के सघटन मे सावंत्रिक वध तकंमूढक नियम विद्यमान है । इस प्रकार की कृतियो मे सर्वाधिक प्रसिद्ध कृति पोतं रायेख (011-1९०४०1 )के कान्वेन्ट (0०४८०) की 1660 ई० मे प्रकाशित (फर्क छुटेएटाए 2.2 ८ 7घ.58000टे८ (सामान्य एव तकमूलक व्याकरण) है । यह मत उन्नीसवी सदी मे भी मिलता है । उदाहरणार्थ, प्रसिद्ध विद्वान्‌ गोटफ़िड हमंन (0०0्हि८वं पट्तफाक्ण्ण) की कृति 106 दााटण- तक्ाएघ, #8परा0एट (जाघ८०8८ छुएदाापा।छ080 1801 ई० ) इसी प्रकार की है। यह अब भी यूरोप मे स्कली-परम्परा से विद्यमान है जहाँ भाषाओ पर ताकिक-मानक प्रयुक्त किये जाते है । अब तक भी दाशषंनिक कभी-कभी विरव- व्यापी सच्चाई की खोज मे लग जाते है जिससे वस्तुत किसी-न-किसी भाषा के रूपात्मक-अभिलक्षण ही झलकते है, न कि कोई सच्चाई । इस सामान्य व्याकरण की धारणा से एक दुर्भाग्यपूर्ण विदवास यह उत्पन्न हुआ कि व याकरण अथवा कोषकार अपनी तकंबुद्धि के ब पर भाषा का तक- मूलक आधार निश्चित कर सकता है और यह निर्धारित कर सकता है कि छोग कसे बोले । अठारहवी सदी मे भाषाप्रसार के कारण अनेक उपभाषाओ के वक्‍ताओ को उच्चवर्गीय भाषिक-रूप सीखने पड़े । इससे प्रयोगनिर्धारक यबेया- करणो को अवसर मिला । उन्होने प्रयोगनिर्धारी व्याकरणों (000 8घए८ छुएवएा- 028 ) की रचना की और उनमे प्राय उन्होंने वास्तविक प्रयोग की अवहेलना




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