तीर्थंकर चरित्र भाग १ | Shri Thirthkar Charitar Part-i

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भ० ऋषभदेवजी - पूर्वभव - धन्य सार्थवाह ड् जं्लीफेिवेपफकणलेकफलकिफककपकककेतिनिरेजपीीनजिजकेपिकेकजकर्ें मैं कितना दुर्भागी हूँ । मैने महात्माआ की उपेक्षा की । उन अकिचन महाब्रतियो का जीवन अब 'तक कैसे चला होगा ? अब मैं उन्हें अपना मुँह भी कैसे दिखाऊँ''-वह चिन्ता से छटपटाने लगा । अन्त में निश्चय किया कि प्रात काल होते ही आचार्यश्री के चरणों में उपस्थित हो कर क्षमा मा्गू और प्रायश्चित्त करूँ। उसके लिए शेप राम बिताना कठिन हो गया । प्रात काल होते ही सह कुछ योग्य साथियों के साथ आचार्यश्री की सेवा मे उपस्थित हुआ । उसने देखा कि - आचार्य ज्ञान, दर्शन और चारित्र से सुशोभित हैं । उनके मुखकमल पर शाति एव सौम्यता स्पष्ट हो रही है ।तप के शात तेज की आभा से उनका चेहरा देदीप्यमान हो रहा है । उनके परिवार के साधुओं में कोई ध्यान-मग्न है, तो कोई 'स्वाध्यायरत । कोई वन्दन कर रहा है, तो कोई पृच्छा 1 कोई सीखे हुए ज्ञान की परावर्तना कर रहा है तो कोई वाचना ही ले रहा है । सभी सतत किसी न किसी प्रकार की साधना में लगे हुए हैं । वे सभी टूटी-फूटी एवं जीर्ण निर्दोष झोपडी में बैठे हुए हैं । सार्थपति आदि ने आचार्यश्री और अन्य महात्माओ को वन्दन किया और उनके सम्मुख बैठ कर निवेदन किया - “भगवन्‌ ! मैं ओपश्री का अपराधी हूँ। मैने आपकी सेवा करने का वचन दिया था किन्तु आज तक आपके दर्शन भी नहीं कर सका। मैं प्रमाद के वश हो कर आपकी स्मृति ही भूल गया। महात्मन्‌! आप तो कृपानिधान हैं क्षमा के सागर हैं । मेरे अपराध क्षमा करें-प्रभु ! ' 'सार्थपति ! चिता मत करो'' - आचार्य शात वचनो से सेठ को आश्वस्त करने लगे-*' आपने जगली क्रूर पशुओं से और चोरों से हमारी रक्षा की है । आपके सघ के लोग ही हमे आहार आदि देते हैं । मार्ग में हमे कुछ भी कष्ट नहीं हुआ । इसलिए खेद करने की आवश्यकता नहीं है ।'' *'महर्षि ! गुणीजन तो गुण ही देखते हैं । मैं भूल और दोष का पात्र हूँ । मैं अपने ही प्रमाद से लल्नित हो रहा हूँ । आप मुझ पर प्रसन होवें और मेरे यहाँ से आहार ग्रहण करें ''- धन्य सार्थवाह ने कहा ॥ बोधिलाभ आचार्यश्री ने साधुओं को आहार के लिए भेजा । जिस समय साधु गोचरी के लिए गये, उस समय सेठ के रसोड़े में साधुओ को देने योग्य निर्दोष सामग्री कुछ भी नहीं थी। सेठ ने देखा-सिवाय घृत के और कुछ भी नहीं है । उसने मुनिवरों को घृत ग्रहण करने का निवेदन किया। साधुओ ने पात्र आगे रख दिया । सार्थपति श्री धन्य श्रेष्ठी ने भावों की उत्तमत्ता से -बडे ही प्रमोद भाव से भक्तिपूर्वक घृतत दान दिया । चृत, दान के समय भावों की विशुद्धि से सार्थपर्ति को मोक्ष के बीज रूप 'बोधि-बीज- सम्यक्त्व' की प्राप्ति हुई । सेठ दान देने के पश्चात्‌ मुनिवरो को पहुँचाने आश्रम तक गया और 'आचार्सश्री




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