सम्यक्त्व विमर्श | Samyaktva Vimarsh

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Samyaktva Vimarsh by रतनलाल जोशी - Ratanlal Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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संस्कृति रक्षक संघ साहित्य रत्तमाला का २० वाँ रत्न सम्यक्त्व विमर्श पथ द कष्ट । परसत्यसथवों वा, सुदिहुपरसत्थसेवणा वादि । वावण्णकुदं सण-वज्जणा, य सम्मत्त-सद्दृहणा ॥1 -परमाथे का १ संस्तव-परिचय एवं कीतेन करना, २ सुदृष्ट-परमार्थ के ज्ञाता की सेवा करना, ३ सम्यक्त्व से पतित की संगति का त्याग करना और '४ कुदशंन-मिथ्यादशेनी की सगति का त्याग करना । (उत्तराध्ययन २८) जीव, बेभान श्रवस्था में श्रनस्त काल रहा । भ्रनादि काल से जीव मिथ्यात्व की श्रवस्था में रहता श्राया । जीव का श्रघिकांश काल झ्रसंज्ञी अवस्था में ही गुजरा, जिसमे किसी विषय पर विमर्श करने की शक्ति ही नहीं थी । मन के श्रभाव मे वह किसी विषय पर विमर्श कर ही नही सकता था । सम्यक्‍्त्व ही कया, वह मिथ्यात्व के विषय मे भी नही सोच सकता था |




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