हमारी राष्ट्रभाषा | Hamaarii Raashhtrabhaashhaa

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Hamaarii Raashhtrabhaashhaa by पं० धर्मदेव विद्यावाचस्पति - Pandit Dharmadev Vidyavachaspati

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) जो लोग झरवी फ्रारसी शब्दों से लदी उदूं को राष्ट्र भाषा बनाने के पक्षपाती हैं ( जिस दावे की निस्सारता उपयुक्त विवे- चन से सरवधा स्पष्ट है क्योंकि बंगाली, गुजराती, मराठी, पंजाबी मारवाड़ी, गुरु मुखी श्ादि भाषाओं का झरबी फारसी व उदू से कोई सम्बंध नद्दीं ) उनकी झोर से कई बार यह कहा जाता है कि हिंदी राष्ट भाषा ( कौमी ज़बान ) इसलिये नहीं बन सकती क्योंकि बद्द सिफं हिंदुओं की ज़वान है पर यह बात भी ऐतिहा- सिक तथा साहित्यिक दृष्टि से विचार करने पर सबंधा श्रशुद्ध प्रमाणित होती है । वर्तमान संस्कृतनिप्न॒ हिंन्दी के निर्माण और विस्तार में सुसलमान लेखकों श्रौर कब्रियों का भी बहुत बढ़ा भाग रहा है । प्राय: यह माना जाता है कि हिन्दी यद्द नाम भी मुसलमानों का ही रक्‍खा हुभ्ना है । मीर खुसरो ने हिन्दी का जो कोष बनाया था उसमें संस्कृत के कठिन २ शब्द भी पाये जाते हैं । सय्यद इन्शा अछाखाँ जेंसे कट्टर मुसलमान ने जिस तरह की भाषा का प्रयोग किया उसके निम्न नमूने ध्यान में रखने योग्य हैं:-- “सिर झुका कर नाक रगढ़ता हूँ उस अपने बनाने बाले के सामने जिसने हम सब को बनाया श्रार बात की बात में वह कर दिखाया कि जिसका भेद किसी ने न पाया ।” “इस सिर कुकाने के साथ दी दिनरात जपता हूँ उस श्पने दाता के भेजे हुए प्यारे को जिसके लिए यों कहा है कि “जो तू न होता तो में कुद न बनाता ।”




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