प्रकृति और हिंदी काव्य | Prakriti Aur Hindi Kavya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अआशुर हु १--प्रस्ठुत काव्य को आरम्भ करने के पूव दमारे सामने “प्रकृति और काव्य” का विपय था! । प्रचलित झरथ में इसे काव्य सं प्रकृति- चित्रण के रूप सें समका जाता है, पर हमारे सामने यह बिपय इस रूप से नहीं रदा है ! जब इमको हिन्दी साहित्य के भक्ति तथा रीति कालों को सोकर इस विषय पर खोज करने का अवसर दिला, उस समय भी विषय को प्रचलित दर्थ म॑ं नहीं स्वीकार किया गया है। इसमे विपय को काव्य ते संबन्धी अभिव्यक्ति तक ही सीसित नहीं रखा है । काव्य को कवि से अलग नहीं किया जा सकता; और कवि के साथ उसकी समस्त परिस्थिति को स्वीकार करना होगा । यही कारण हैं कि यहाँ प्रकृति और काव्य का संबन्घध कवि की शझ्रुभूति तथा अभिव्यक्ति दोनों के बिचार से समभने का प्रयास किया राया है, साथ ही काव्य की रसात्मक प्रभाव- शीलता को भी दृष्टि में रक्दढा गया है। विषय की इस बविस्तृत सीमा में प्रक्ति और काव्य संवन्धी अनेक प्रश्न सल्निहित हो गए हैं । प्रस्तुत काय्य में केवल 'ऐसा है? से सन्तुष्ठ न रदकर, “क्यों है ?” श्र 'कैसे है ? का उत्तर देने का प्रयास किया गया है। काय्य के विस्तार से यह स्पष्ट है कि इस विषय से संबन्धित इन तीनों प्रश्नों के आधार पर आगे बढ़ा गया है। सम्भव है यह प्रयोग नवीन होने से प्रचलित के श्रनुरूप न लगता हो; श्रौर प्रकृति तथा काव्य की दृष्टि से युग की व्यापक प्रट-भूमि और झध्यात्मिक साधना संबन्धी विस्तृत विवेचनाएँं विचित्र लगती हों। परन्ठ विचार करने से यही उचित लगता है कि विषय की यथाथ विवेचना वैज्ञानिक रीति से इन दीनों ही प्रश्नों को लेकर की जा सकती है । चविपय घवेरा




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