गोविन्ददास ग्रंथावली ३ | Gobinddas Granthwali 3

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Gobinddas Granthwali 3 by गोविन्ददास - Govinddas

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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बलदेव : सोहन : बलदेव : पहला श्रक [ €£ : बाल्यावस्था बाल्यावस्था ही है, मोहन, वह सुख फिर जीवन में प्राप्त नही होता । : परन्तु, मित्र, कालिन्दी को तो इस शभ्रवस्था में भी कदाचित्‌ वही सुख प्राप्त है । तभी तो देखो, उसे मेरे इस प्रेम का ध्यान ही नहीं । हाँ, मेरी दशा सवेथा भिन्न हो गयी है । कैसी ? मुझे स्वेत्र कालिन्दी ही कालिन्दी दृष्टिगोचर होने लगी है । सुयं भ्रौर चन्द्र की किरणों की चमक, तारो के शिलमिलाते हुए प्रकाश, विद्युत्‌ की द्युति, बादलों के बदलते हुए रगों, इन्द्र-धनुष के विविध वर्णों, चलती हुई वायु के मधुर अ्लाप, शान्ति से बहती हुई सरिताश्रो, भर-भर करते हुए भरनों, पानी से भरे हुए सरोवरो के गुलाबी श्ौर इवेत कमलो, पक्षियों के गान श्रौर आ्रमरो की गुजाहट, पुष्पो की बयारियों श्रौर लहलहाती हुई लताश्रों, इतना ही क्यो, सारे विद्व मे कालिन्दी ही कालिन्दी दिखती है । किसी मे उसका वर्ण, किसी मे उसकी प्रभा, किसी मे उसका दाब्द, प्रत्येक पदाथ में उसकी किसी-न-किसी समानता का श्रनूभव होता है। किन्तु उसकी तो यह दशा नही है । मुभे विश्वास है कि उसकी भी ठीक यही दशा छोगी , प्रेम से प्रेम की उत्पत्ति होती ही है ।




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