हिंदी साहित्य और बिहार भाग - २ | Hindi Sahitya Or Bihar Vol-2

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924 Hindi Sahitya Or Bihar Vol-2 by आचार्य शिवपूजन सहाय - Acharya Shiv Pujan Sahay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(ड्‌) परिशिष्ट ९ के साहित्यकारों में तीन-चार बड़े महत्तत के मिलते हैं। इनमें सर्वाधिक महत्वपूर्ण व्यक्ति हुए मूदेव छु्ोपाध्याय, जो बंगाली थे। कहते हैं, बिहार को झदालतों में फारसी और केथी-लिपि के स्थान पर नागरी-लिपि का प्रचलन कराने का श्रेय इन्हे ही है। कुछ विद्वान्‌ तो बिहार में हिन्दी-मात्र के प्रचार का श्रेय इन्हे देते हैं । उनका कहना है कि बिहार में बाबू रामदीनर्तिह के सहयोग से इन्होने विविध विषयों को अनेक पाव्य-पुस्तकं नागराक्षर में पहले-पहल प्रकाशित कराई थी । ये हिन्दी के झनन्य समर्थक थे श्रौर आज से लगमग सौ वर्ष पहले ही इन्होने यह मविष्यवाणी को थी कि हिन्दी एक समय राष्ट्रमाषा के पद पर झासीन होकर ही रहेगी । दूसरे महत्त्वपूर्ण व्यक्ति हैं राघालाल माथुर । ये उनलोगों में प्रमृख थे, जिन्होंने हिन्दी में पहले-पहल पादय-पुस्तकें तैयार की थी। इनका सबसे महत्वपूर्ण कार्ये हुआ 'हिन्दी-शब्दकोश' का निर्माण, जिसे इन्होंने प्रसिद्ध कोशकार फैलन साहब के आदेश पर तेयार किया था। इन्होंने विभिन्‍न बिहारी लोकमाषाशओं के गीतों, कथाओं; लोकोक्तियों श्रादि का भी एक ब्रहदू संकलन तेयार किया था । पं० शीतलाप्रसाद त्रिपाठी इनमें तीसरे उल्लेखय व्यक्ति हुए । इन्होंने ही उस प्रप्तिद्ध नाटक 'जानकी-मंगल' की रचना की थी, जिसे हिन्दी का सबसे पहला श्रमिनीत नाटक माना जाता है । कहते हैं, इनके समान कोई भी दूसरा वेयाकरण इनका समकालीन नहीं हु । कदाचित्‌ इसी कारण महाराजकुमार बाबू रामदीन सिंह इनसे हिन्दी-माषा का एक बृहदद व्याकरण लिखवा रहे थे, जो इनके निधन के कारण पूरा न हो सका | अन्त में, सुमेरलिंद साहबजादे का नाम श्राता है; जिनकी गणना बिहार के तत्कालीन सुप्रसिद्ध कवियों में होती है । इन्होंने सन्‌ १८४७ है० मे; पटना में एक कवि समाज की स्थापना की थी, जिसकी ओर से बाबू त्रजनन्दन सहाय श्रजवल्लम' के सम्पादकत्व में “समस्यापूर्ति' नामक एक मासिक पत्रिका मी प्रकाशित होती थी । उपसंद्दार उन्‍नीसवी शती पूर्वाद् के केवल उन्हीं साहित्यकारों के विवरण ऊपर दिये गये हैं; जिनकी रचनाओं के उदाहरण अथवा पुस्तकों के नाम उपलब्ध हैं | जिनकी रचनाओं के न तो उदाहरण ही प्राप्त हुए; न कृतियों के नामोल्तेख ही, उनके सम्बन्ध में प्रामाणिक रूप से कुछ कहना कठिन है । मविष्य में प्राचीन साहित्यानुसंधान के परिणामस्वरूप यदि कुछ सामग्री सामने झायगी, तभी उनके सम्बन्ध में कुछ कहना न्याय-संगत होगा | जहाँतक हो सका है, साहित्यकारों के सम्बन्ध में जो बातें प्रामाणिक दीख पड़ी, उन्हीं का उल्लेख इस पुस्तक में किया गया है। प्रामाणिकता के लिए स्वभावतः हमें मिन्‍न-मिन्‍न सूत्रों पर निर्भर रहना पड़ा है। अत. यदि किसी परिचय में कही कुछ प्रामाणिक सामग्रो का समावेश भी दो गया हो, तो कुछ आाश्चये नहीं । पुस्तक के छप जाने पर एक ऐसी भूल हमारी दृष्टि में झाई है, लिसका उल्लेख यहाँ कर देना अप्रासंगिक न होगा। बाबू रिपुमजन सिंह के परिचय में कहा गया है कि सन्‌ सत्तावन १. प्रस्तुत पुस्तक, पर० १६१ से ९३ ।




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