मानसरोवर भाग ४ | Mansarovar Part 4

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Mansarovar  bhag - 4 by प्रेमचंद - Premchand

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प्रेमचंद का जन्म ३१ जुलाई १८८० को वाराणसी जिले (उत्तर प्रदेश) के लमही गाँव में एक कायस्थ परिवार में हुआ था। उनकी माता का नाम आनन्दी देवी तथा पिता का नाम मुंशी अजायबराय था जो लमही में डाकमुंशी थे। प्रेमचंद की आरंभिक शिक्षा फ़ारसी में हुई। सात वर्ष की अवस्था में उनकी माता तथा चौदह वर्ष की अवस्था में उनके पिता का देहान्त हो गया जिसके कारण उनका प्रारंभिक जीवन संघर्षमय रहा। उनकी बचपन से ही पढ़ने में बहुत रुचि थी। १३ साल की उम्र में ही उन्‍होंने तिलिस्म-ए-होशरुबा पढ़ लिया और उन्होंने उर्दू के मशहूर रचनाकार रतननाथ 'शरसार', मिर्ज़ा हादी रुस्वा और मौलाना शरर के उपन्‍यासों से परिचय प्राप्‍त कर लिया। उनक

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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५ श्नरणा मेरे साथ खाता मेरे साथ सोता । मैं ही उसकी सब कुछ था वह संसार में नहीं है । मगर मेरे लिए वद्द अब भी उसी तरह जीता-जागता है | में जो कुछ हूँ उसी का बनाया डुश्रा हूँ । श्रगर वह देवी विधान की. भाँति मेस पथ-प्रदशंक न बन जाता तो शायद झ्ाज मैं किसी जेल में पड़ा होता । एक दिन मैंने कद दिया था--श्रगर तुम रोज नहा न लिया करोगे तो मैं तुमसे न बोलूँगा । नदाने से बद्द न जाने क्यों जी चुराता था । मेरी इस घमकी का फल यद हु्रा कि वह नित्य प्रात काल नहाने लगा । कितनी दी सर्दी क्यों न दो कितनी दी ठडी दवा चले लेकिन वद्द | स्नान श्रवश्य करता था | देखता रइता था मैं किस बात से खुश दोता हूँ । एक दिन मैं कई मित्रों के साथ थियेटर देखने चला गया ताकीद कर गया था कि तुम खाना खाकर सो रदना । तीन बजे रात को लौटा वो देखा कि वह्द बैठा हुश्रा है। मैंने पूछा--ठुम वोये नददीं १? बोला--नींद नहीं आई । उस दिन से मैंने थियेटर जाने का नाम न लिया । बच्चो में प्यार की जो एक भूख होती है--दूध मिठाई और खिलौनों से भी ज्यादा मादक--जो मा की गोद के सामने ससार की निधि की भी परवाह नहीं करते मोहन की वह भूख कभी सठुष्ट न द्वोती थी | पद्दाड़ो से टकरानेवाली सारस की झ्रावाज़ की तरदद वह सदेव उसके नसों मे गूँजा करती थी । जैसे भूमि पर फैली हुई लता कोई सहारा पाते ही उससे चिपट जाती है वद्दी दाल मोहन का था । व मुकसे ऐसा चिपट गया था कि एयक्‌ किया जाता तो उसकी कोमल वेलि के ठुकड़े-दुकडे हो जाते । चद्द मेरे साथ तीन साल रहा ओर तब मेरे जीवन में प्रकाश की एक रेखा डालकर श्रघकार में विलीन दो गया । उस जीशणुं काया में कैसे केसे झरमान भरे हुए थे । कदाचित्‌ ईश्वर ने मेरे जीवन में एक झवलंब की सुष्टि करने के लिए उसे मेजा था | उदेश्य पूरा दो गया तो वह क्यों रहता । भ्ड पार्मियो की तातील थी । दो तातीलों में मोहन मेरे ही साथ रद्द था | मामाजी के श्रात्रह करने पर भी घर न गया । अबकी कालेज के छात्रों ने काश्मीर -यात्रा करने का निश्चय किया श्र मुभ्हे उसका अध्यक्ष वनाया | काश्मीर यात्रा की अझभिलाषा मुझे चिरकाल से थी । इसी अवसर को ग़नीमक्त




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