मानव धर्म की आख्यायिकाएं | Manav Dharm Ki Aakhyayikayen
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4 MB
कुल पष्ठ :
152
श्रेणी :
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आचार्य नानाभाई - Achary Nanabhai
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काका कालेलकर - Kaka Kalelkar
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उपमन्प थ्
के इतनी उन्नति कर लेनें पर भौ आप उसे ज्ञान की परम दोज्ञा षयों
नहीं देते ?” /
“बात तो तुम्हारी चित्कुल सच हूं । इतने कम समय में शासन
भर जीवन के रहस्य को समकने वाला यही एक शिप्य साया है ।
ध्यान-घारणा तो भानों उसके लिए स्वयंसिद्ध हो थे; अपने चित्त के
दोनों को परसने की उसकी सुधष्मता ने अन्तःकरण को एक-एक तह को
उलद-पुलट डाला हूं; उसने अनेक अशुभ वामनालो को उलट दिया हूं और
जीवन के समूचे प्रवाह को परम तत्व को ओर अभिमुस्र यार दिया हू ।”
ऋषिनपत्नी नें चल पाकर कहा--'तो फिर लाप उसे जान की
अन्तिम दीक्षा क्यों नहीं देते ?”
“उसका एक फारण है ?”
गग्क्पा शृर
“उपमन्पु पो तो सब तरह तंपार हो गया हूं; फिन्दु उमका एक
दोष इसमें चाघक हो रहा हें।”
“आपको उसमें कौन-सा दोप दोरता हूं ?”
“उसकी भूख--अप्र के प्रति उसकी यासना ?”
“उपमन्पु को लग की चातना हैं? फिर तो जपने पिता दे महल
छोड़कर चहु यहां भीख मांगने आता हो वयो ?”
“तुम दूसे नहीं जानती; मं उसके इस दोप दगे प्रग्द सदता हूं । उपमन्पु
स्वय भो इस चात को जान गया हैं; किन्तु यह देदारा पिंदद हो जाता हूँ ।
यह उसके लालन-पालन का दोप हूं । ऐघयर्य सम्पप्न माता-पिता का इडालौता
लड़का ठहुरा । इसलिए जब पानों मांगा, तो लोगों ने ट्रूप दिया ।
आज जीयन को अन्य सब यातों में उपमन्यु ने दिदारयल से सपनों पाया-
पलट कर डालो हु; किन्दु इस दोप के सागे यह भी हार राता हैं । उस समय
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