चाँद सूरज के बीरन | Chand Suraj Ke Biran

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Chand Suraj Ke Biran by देवेन्द्र सत्यार्थी - Devendra Satyarthi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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| श्राक के फूल, धतुरे के फूल ं श्यृग की पिरारी में थे स्मृतियाँ श्राज मी बन्द पड़ी हैं । पिटारी का दृकना उठाया नहीं कि पुरानी स्पूतियाँ जाग उठीं । शायद इनका कोई क्रम नहीं, शायद इनका कोई श्रर्थ नहीं; ये. स्पतियाँ पिरारी से सिर निकाल कर पाहर की हवा खाना चाहती हैँ, बाहर की मलक देखना पाती हूं । घर में एक दुलहन' झाई है। रिश्ते में बालक की नाली है ।.. माँ कहती है, “यह तेरी मौसी है ।” चावी--मौसी, मौसी-“नचापी ! बालक की समझ में यह बात नहीं आती । दुसाइन तो ठुलदन है । शायद बालक तना भी नहीं रामकता । वह तुलइन के पास से हिलता ही नहीं । माँ घूरती है । शान क्‍यों घूरती है माँ ! बालक चुद नहीं समझा सकता | माँ खिलखिला, करें हंस पड़ती हू; यह पवाहती है कि बालक उसका झंखल पकड़े कर भी उसी तरह न्वही जिस तरह बढ अपनी मौसी _ का शंचल, पकड़ कर चलता ऐ । पालक यद नहीं समझ सकता । दुल्हन भीतर जाती हे. जहाँ झम्थकार है । भालक भी साथ-साथ रहता है । तुलदन कपड़े बरल रही है। खुम भी साथ प्री आप ?” दुलइन हैँसकर पृछाती है । अन्धकार के बावजूद बह ब्राल्क के गाल पर श्रापना हाथ रख देती है, उसे भींच लेती हैं । कपडे थरत कर, नया लहंगा पहन कर वह बाहर निकलती है । साथनसाथ बालक सता है; सुनहरी गोट बादी मलगनी लहूँगे से उसका हाथ नहीं हृटता । दुलइन अपनी सलियों के साथ नहर पर जायगी । वह सोचती है कि बालक उसके साथ इतना कैसे घुल-मिल गंया । माँ श्रप्रनी जगह है, दुलहन श्रपनी जगदद । तुलइम बालक को छुड़सी है, “सिरे शिए. मी तो दूंगी एक मर्हीं-




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