ज्ञानोदय भाग - 6,7 | Gyanoday Bhag - 6,7
श्रेणी : साहित्य / Literature
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
28 MB
कुल पष्ठ :
698
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about लक्ष्मीचन्द्र जैन - Laxmichandra jain
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)कारों के प्रति सम्मांत-भावना : :ईन संब
विंदिष्ट गणों से विभषित यह दम्पति अन्य धनी-
मानी “व्यक्तियों के लिए प्रेरक बन .गये हूँ ।
- केन्द्रशासित दिल्ली _क्षेत्र के उपराज्यपाल
- डॉबटर आदित्यनाथ झा ने अपने विद्त्तापूर्ण
भाषण में पंतजी के कवि-व्यक्तित्व की
'व्यापकता और गहनता पर प्रकाश डाल कर
श्रोताओं को मन्त्रमु्ध किया । उन्होंने कहा :
पंत का काव्य उन की जागरूक चेतना,
युग की समस्याओं के समाधान सम्बन्धी स्पष्ट
दृष्टिकोण की परिचायक हो कर भी किसी
संकीर्ण मतवाद या साहित्यिक प्रवृत्ति में
सीमित नहीं है । विवेकानन्द और रामतीर्थ
के प्रभाव से .कवि का ज्ञान और विश्वास
प्रौढ़ हुआ । दर्शनशास्त्र और उपनिषदों के
अध्ययन ने उसे परिवर्तन की निरंकुशता तथा
.. नदइवरता के अनिवार्य रूप की ओर सजग
*. « किया । नदवरता की अनुभूति ने ही कवि को
महान चिरन्तन ...वास्तविकता का अंग बनने
को .आकुछ किया 1
डॉ० झा ने भागे कहा
को साध्य बना लेने के कारण कवि की!
पलल््लव' के बाद की कृतियों मे प्रकृति के
स्थान पर मानव को प्रधानता मिली है । इन
कृतियों में व्यापक युगदोध के साथ संस्कृति
और राजनीति, अध्यात्म गौर वस्तुवाद का
सामंजस्य मिलता है । सांस्कृतिक निर्माण की
व्यापक भर उदात्त परिकल्पना के कारण ही
कवि जीवन सम्बन्धी खण्ड-सत्य, एकांगी
दृष्टिकोण को अपनाने को तत्पर नही है । उस
* चतुथ पुरस्कार समपंण मद्दोत्सव
*लोकमंगल, :
के अनुसार मध्ययुगीन नैतिर्कतों जब विभिन्न
जाति, वर्ग और धर्मों की विषमता को सहज
- समस्वित कर मानवता मे.विकसित होगी तभी
स्वर्ण पिंजर में बन्दी मानव आत्मा को
स्वतन्त्रता मिल सकेगी । पंत ने जीवन के सहज
स्वस्थ रूप को स्वीकृति देते हुए अतिवादों की
वर्जना की हैं ।
उपसंहार करते हुए उन्होंने बताया :
“यही स्वस्थ सामंजस्यमयी प्रवृत्ति 'चिदम्बरा'
के कृति कलाकार की महानता का उद्घोष
करती है । उन में नवीन के प्रति आग्रह में
प्राचीन के प्रति वितृष्णा ओर उपेक्षा नहीं
मिछती । उन्होंने -नवीनें और प्राचीन, भावना
और विज्ञान, भध्यात्म भोर भौतिकता, राज-
नीति ओर संस्कृति मे से सार संचयन कर
अपनी ऊर्जापूर्ण वाणी से मानवता का अभि-
नन्दन किया । उन की रचनाओं में उन का
समन्वयवादी, जीवन-सत्य की अखण्डता. में
भास्थावान् रूप ही प्रकट हुआ है ।”'
इस के अनन्तर प्रवर परिषद् के सचिव एवं
भारतीय ज्ञानपीठ के सन्त्री श्री लक्ष्मीचन्द्र जेत
'प्रनस्तिपत्र' का वाचन किया । उस में
कहा गयां थां कि “चिदम्बरा कवि पन््त के
काव्य-विकास के द्वितीय उत्थान की. परि-
चायिका है जिंस में १९३७ से १९५७ के बीच
का सुजंन संचयित है । नवीन चेतना का यह
काव्य, य॒ग के संघर्षो की पृष्ठभमि में, नयी
सास्कृतिक प्रेरणा, नये सौन्दर्य बोध की भावना
भौतिक प्रगति और आध्यात्मिक विकास की
शक्तियों के समन्वयन से 'प्रसुत नैतिकता की
श्दे
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