जैन सिध्दान्त भाष्कर भाग २२ | Jain-sidhant-bhaskar Bhag-22

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Jain-sidhant-bhaskar Bhag-22 by डॉ नेमिचंद्र शास्त्री - Dr. Nemichandra Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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किरण १ ] देवगढ़ श्ौर उसका कला बैंमव श्३ देवगल थे श्वशेष श्रात भी प्राचीन भारतीय कला श्रौर उसके विकास के श्रष्ययन वे लिये प्रचुर सामग्री प्रदाप करते हैं । हि ठु स्वय देवगढ़ का इतिहास प्राय श्र बकाराच्छुल है । यह स्पान प्राप्त श्रवशेषों, शिलालेगों तथा श्रय ऐतिदालिक साधनों से ऐसा प्रतीत दोता है कि श्रस्पस्त माचोन वाल में इस प्रदेश पर श्रघतम्य शयर ज्ञाति का निवास था |. मदामारत काल में यदद भूमाग दशाण देश का श्रग था श्रीर पारडवों वी राज्यसीमा के भीतर पड़ता था | शवों या सदियों का निवास बहुत पीछे तक रद, उनसे गौड़ लोगों ने इसे छीन लिया । महाबीरोत्तर मगध के शैशुनार य द मौय साम्राय का भी यद प्रदेश दंग रहा | सभवतया इसी युग में किसी समय गौंड़ लोगों ने यदों सब प्रपम दुग श्रौर नगर का निर्माण किया गाँडों से इस प्रदेश के गुप्तनरेशों ने जोता श्रौीर इसी काल से देवगट का वास्तपिक श्रस्युदय प्रारम हुमा । उस समय यद एक प्रष्ठिद्ध राजमाग पर स्पित था श्रौर गुप्त लाधाप का एक प्रमुख जनपद था श्रौर समवतया तत्मदेशीय भुक्ति का कैद्वौय स्थोन था ।. गुसकाल्त के कई नैन वेध्याव देवालय, मृर्तियोँ तथा भवनों के श्रवशेष उस काल में इसका एक समृद्ध नगर होना सूचित करते हैं। शुप्तों के उपर! त दराने श्रीर फि. मालवे के यशोधमन श्रौर तदुपय त कौज के वबधन घशं का इस प्रदेश पर श्रघिक्ार रहा । 5 वों से १० वो था दी पय ते प्रथम मिनमाल और फिर का यकुज के गुजर प्रतिद्वारों का देवगढ़ पर प्रमुख रहा । इन गुजर सम्राट के बल में यद नगर एक मदर्यपूण प्रा तीय॑ के दर श्रीर एक मदासामत्त को राजघानी था | इसी काल में देवगढ़ श्रपने वेमय श्रीर कला की उनति के चरम शिखर पर पहुँचा ।. ऐसा प्रतोत शता दे कि गु्तों श्र गुतर प्रतिदवारों के मध्य वी शतारिदियों में इस रपान पर किसी जैन शययश या उपणज्ययश का शासन रहा, उद्दोने ही इस सुश्म्य पवत पर यद सु दर मुदढ निकुद दुग निर्माण कराया श्रौर उसे श्रोक जैन देवाल या एव कलाइ पियों से श्रलइत किया | पपत के ऊपर श्रौर दुर्गकोट के भीनर श्रय किमी घम के या उसके देवालयों श्रालि के श्रवशेष नई मिलते । इसके विपरीत ६ वो शती ई० के मध्य के एक शिलालेज से छिद्ध दोता दे कि उसके पूव भी यहें दुग श्रौर उत्के मीतर कई प्रमुख जिनमटिर विद्यमान थे |. एक विद्वान का श्रनुमान है कि ८६ वो शती दे में यहाँ किसी देववश का शासन रहा दे । सम दे देवगढ़ के तत्कालीन शासक उपरोक्त जैन राज्ययश का दो यद नाम रदा दो। कितु इतिदास में इस बश का कोई पता नहीं चलता ।. शुत्रर प्रतिद्वार सम्ाद स्वय जेनघर्म के प्रति श्रस्पत सदिषणु और उसके प्रधय दाता थे। उनके उपरात १. वों से १३ वों शती ई० पय त जेजाकुत्ति के च देल नरेशां का इस स्थान पर अधिकार रहा । उनके राज्य की यद एक उपसंजघानी दी थी। चदेल नरेश भी जैनघम के श्रत्यघिक प्रशयदाता थे । उनके शाहन में देवगढ़ के के... चार्मिक एव का जैमव वो श्रमितृद्धि ही हुई। यहाँ के घ्यधिकारा मदच्वपूरा श्वनोपर




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