सत्पथ - दर्पण | Satpath - Darpan

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Satpath - Darpan by अजितकुमार जैन शास्त्री - Ajeetkumar Jain Shastri

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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डे (ओसवाल) की दिगम्बर आम्नाय मे आस्था समयसार ग्रन्थ का स्वा- ध्याय करने के अनन्तर ही हुई । श्री कहान जी स्वामी [जिनका प्रचलित सुगम नाम श्रीकान जी स्वामी है ।] स्थानकवासी साछु थे, आपने भी सौभाग्य से समयसार का स्वाध्याय फिया और श्री कुन्दकुन्द आचायें के भक्त बनकर आपने भी दिगस्बर-आम्नाय मे प्रवेश किया है । धर्माचुराग-वदा हमारे हृदय मे उनका अच्छा आदर सन्मान है । जहाँ आपने स्थानकवासी सम्प्रदाय की विचार-घारा का परित्याग करके दिगम्बरीय विचार धारा को अपनाया, वहाँ आपने अभी तक [लगभग २४ वर्ष से] न तो महाब्रती मुनि चारित्र का आचरण किया और न अणुन्नती चारित्र का आचरण किया । यद्यपि आप ८वी प्रतिमा का आचरण सुगमता से कर सकते है परन्तु आपने अभी तक पहली' दूसरी तीतरी आदि किसी भो प्रतिमा का आचार ग्रहण नहीं किया । इसी कारण वे अपने आपको अविरती कहते है । इसका कारण यह प्रतीत होता है कि पहले तो आप महाब्रती साथु थे, परन्तु अब श्री कुन्दकुन्द आचारयं के अनुसार दिगम्बर महाब्रती साधु बनना तो आपको संभवत: अशव्य दीखता है और पूर्ववर्ती महाब्रती से श्रावक-आचार ग्रहण करने मे आपको संकोच होता है । इसी कारण आप ऐलक क्षुल्लक या श्रावक ब्रत आदि किसी भी पद का आचार ग्रहण नहीँ करते । इसके सिवाय ऐसा भी जान पडता है; कि आप कुछ सुखाभ्यासी बन गये हैं, अत: ब्रत तप संयम आपको अपने लिये कठिन प्रतीत होता - है। अस्तु', कुछ भो हो । आप अनगार और नेष्टिक सागार आचार मे से कोई भी चरित्र ग्रहण नहीं 'करना चाहते, तो न करें, इसमे तो आपकी ही आध्यात्मिक हानि लाभ का' प्रदन है, किन्वु आपका एक 'घ्म-प्रचारक के नाते यह मुख्य कतंव्य है कि आप अपने अनुयायी भक्तों है गन 1




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