बापूकी झाँकियाँ | Bapuki Jhakiyan

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Bapuki Jhakiyan by काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about काका कालेलकर - Kaka Kalelkar

Add Infomation AboutKaka Kalelkar

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
कहा--' मैं ठग अपनेको ही दिये देता हूँ। तुग्दारे साथ जायूंगा और जितनी हो सके तु्दारीं मदद करूँगा 1* दोनों दक्षिण अफ्रीका गये। ंप्रिज़ेकि थीच रदनेके कारण बापू अंप्रेजेंको शद पहचान छेठे हैं । व्दों जाते ही ये दोनों मित्र गाँधीजीके मी मित्र बन णये | मिस्टर उेंडरभूसने गांधीजीसे कहा -- ' आयन्दा में तुम मोहन कहूँगा, तुम मुझे चार्ली कहना 1 तबसे जिन दोनोंका सम्बन्ध मा-जाये भाशियों जैसा रहा । जब कंभी मिस्टर अेंद्रयूतत विदेशसे हिन्दुस्तान आते, तो कुछ दिन पहले नज़दीकफे बन्दरसे 10 (०020 10४6 दिणणा (कप यदद केबल (तार) मेने पिना अुनसे नहीं रहा जाता । जिस तरदसे पैसा खर्च करना बापूफो अखरता तो बहुत था, लेकिन भुनको मना करनेकी हिम्मत भुन्होंने कभी नहीं की । मिस्टर मेंद्र धज़का स्वभाव कुछ मुल्कना था । नहाने जाते वहीं घड़ी भूल जाते । किसीसे चुछ छेते अथवा देते, वदद भी अवसर भूल ही जाते । शिसलिजे जब बाए भुन्हें कहीं भेजते तो ज्यादा पैसा देकर भेजते थे, और देँसकर कहते थे--' भ्रुलकर खोनेके लिमे भी सो कुछ देता चाहिये ।” वे कभी पैसेका दिसाव नहीं रखते थे। लौटने पर जेबें बुछ पैसा बचता; तो अपने मोइनको वापिस दे देते थे । मैंने देखा कि आगे जाकर मिस्टर भेंद्रडूल़ मापूको मोइन नहीं कद सके । इम लोगोंकी देखादेखी वे भी बाप ही कहने लगे | ७ श९१५ का दिसम्बर होगा । बम्बऔीमें कांग्रेसक! अधिवेशन था | बापू अपने आभमवासियोंको लेकर मारवाड़ी विद्यालयमें ठदरे थे । मैं अन्य जगद उदरा था; लेकिन बहुतेसा समय बापूफे पाप ही गुजास्ता या । अेक दिन सुनें कट्टीं जाना. था । डेस्क परकी सब चीजिं थे सैभालकर रखने लगे । देखा हो कोझी चीज़ वे हूँ रे है, बढ़े परेशान हैं। मैंने घुछा -- ' बापूजी कया हूँढ़ रहे हें ! ? *' मेरी पेन्सिल । छोटीसी है। ”




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now