निरुक्ता ऑफ़ यस्का | Nirukta Of Yaska

लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
24.77 MB
कुल पष्ठ :
324
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)६ ४ अभी तक ये सभी अन्थ पूर्णतया उपलब्ध नहीं हुए हैं तथापि इस विपुलुकाय साहित्य को देखकर हमें उस समय के ज्ञान एवं परिश्रम पर भाश्चय करना पढ़ता है। इन सबों को ठीक-टीक समझने एवं तदचुसार कारय कलाप का संचाछन करने के लिए वेदाज्ञ-गन्थों की आवश्यकता होती है जो शरीर के अड्डों के समान ही वेद के अनिवायं भागहेैं। ये अड्ज हैं-- दिक्षा करप व्याकरण छुन्द ज्योतिष और निरुक्त । इन सर्बों का विभाजन पाणिनि-दिक्षा ४१-४२ में इस प्रकार है-- छुन्दः पादी तु वेद्स्य हस्तो करुपोझ्थ पश्यते । उयोतिषासयनं चकुनिरुक्त श्रोब्रमुच्यते ॥ ४१ ॥ शिक्षा प्राण तु वेद्स्य सुख व्याकरण स्सतस । तस्मात्साज्ञमघीत्येव ... श्रह्मछोके ... मद्दीयते ॥ ४२ ॥ १ शिक्षा--स्वर वण आदि के उच्चारण का नियम बतलाने वाली विद्या ही शिक्षा है । उदात्त अनुदात्त तथा स्वरित इन तीनों स्वरों के उच्चारण किस प्रकार से हों इसे बतलाना ही शिक्षा का प्रधान कार्य है । स्वरों के अत्प-सेद से ही बड़े-बड़े अजनर्थ हो जाते हैं जैसा कि हम इन्दशय्ु के चृत्तान्त से जानते हैं । शिक्षा का अध्ययन एक प्रकार से आधुनिक ध्वनिविज्ञान िफण्णण0०छूए का अध्ययन है जिसमें उच्चारण के स्थान वर्ण स्वर मात्रा इस्व दीघं प्छुत 9 शुद्ध उच्चारण के नियम तथा सन्धि का अध्ययन होता है । उच्चारण के छिए पाणिनि-शिक्षा कहती है कि जिस प्रकार बिज्ञी रूपने बच्चों को दाँत से पकड़ती है न तो दाँत ही गढ़ते हैं और न गिरने का ही डर है--सन्तुलन से उसी प्रकार अक्षरों का उच्चारण करें । उस काक में ध्वनि-विज्ञान की इस प्रकार की उन्नति किसे चकित नहीं करती ? १. सन्त्रो दीनः स्वरतो वणतो वा मिथ्याप्रयुक्तो न तमर्थमाद । स वाग्वज़ो यजमानं हिनस्ति यथेन्द्रशवुः स्वरतोधपराधात् ॥ पा० दि० धर झुक्राचाय वुचासुर को इन्द्रननाश के लिए यज्ञ करा रहे थे । उन्होंने मन्त्र पढ़ा-- इन्द्रशाजुवंधस्व स्वाद । उनका मभिप्राय था कि दे इन्द्र के नाशक शबु तुम उत्पन्न हो बढ़ो । ऐसी दशा में तत्पुरुष-समास अन्त का अक्षर उदात्त होता किन्तु अ्मवद उन्होंने पूव पद के अनुसार स्वर रख दिया जो बडुब्रीहि समास में होता है। फल्त अर्थ डुआ--इन्द्र या नाशक हैं जिसके इस तरह बृत्र ही मारा गया । स्वर के लिए देखें -पा० सू० समासस्य ६१२२३ बहुब्ीदी प्रकृत्या पूवपदम् द।२।३ । व्याघ्री यथा इरेदत्सं दंप्राम्यां न च पीडयेत । भीता पतनभेदास्यां... तद्ददर्णान्प्रयोजयेत् ॥ २५ ॥
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