समीक्षा के सन्दर्भ | Samiksha Ke Sandharbh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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२० समीक्षा के सन्दर्भ विकास में वालभर वदली भाषा के अस्तर से, एक ही प्रकार से अपने नाटकों -- शऐन्टनी एण्ड विलयोपेट्रा', 'गाल फ़ार लव” और 'सीज़र एण्ड विलयोपेट्रा' लिखा है। तत्सम के प्रति 'दिनकर' का भी इतना उन्मद आकर्षण है कि वे संस्कृत में भी साधारणत: दुलेंभ 'सुन्नारी' (पु० ३५), 'विमल्लोक' (पृ० १४५): 'असृकू- श्रवण' (पृ० १५९) लिखते हैं जिससे कभी-कभी उस प्रवृत्ति का भी गोचर हो जाना कुछ अजय नहीं जिससे प्रभावित आज के तीव्र तत्समवादी भी 'धूमपान' की जगह “धूख्रपान' कहते-लिखते हैं । इस प्रकार के दो उदाहरण “उवंशी' में भी उपलब्ध हैं--“घूणिमान सिर' (प्ृ० १५२)--दोनों शब्दों की संगुक्त रवानी पर जरा गौर कीजिये--महार्थ (प्ृ० १५४), यद्यपि यह दूसरा, कुछ अजब नहीं जो, मुद्रण-दोप से सम्भव हो गया हो । तत्समों पर निःसन्देह हिन्दी का अधिकार है, पर निश्चय ही उन्हीं पर जो हिन्दी के दाय क्षेत्र में, आ गए हैं (शब्द की च्युत्पत्ति का भाव भी यही है), ध्वनि-लाभ मथवा अदुभूत गौर प्रभाव के लिये उनको संस्कृत से उठाया नहीं जा सकता, वरना अनुचित प्रयोगों से भापा विगड़ जायगी जैसे इस काव्य की भी यहाँ सर्वत्र विगड़ गई है जहाँ “स्पर्श (पृ० ३७, ४, भद, १००, १०६, १२०, १३७), मृत्ति (पूरे १०, ४६, भू, दटै, ७३). सउड्ीन' (५३), स्यात्‌' (पृ० ६१, ८१, ८७, €३, १००, १४३, १६४) मादि शब्दों का उपयोग हुआ है । “स्पर्श' की जगह प्राय: सर्वत्र 'परस' शब्द का इस्तेमाल हो सकता था जिससे उसकी कठोरता कोमल हो जाती भर खींचकर पढ़ने की भी लावश्यकता न होती । “स्यात्‌' का तो इतना उपयोग हुआ है-- एक जगह “स्यात्‌-स्यात्‌” का भी (पृ० ८७)--कि छगता है जैसे, कवि इस पुनरुक्ति-मोह्द द्वारा 'स्यादवाद' की व्याख्या कर रहा हो । कुछ अजव नहीं, यह विशिप्ट्ता उसने राजधानी के राष्ट्रकवि से छी हो, जिसके काव्यों में “स्यात्‌' शब्द की भरमार है बौर जिसका उत्तराधिकार हमारा नायक कवि धीरे-धीरे स्वायत्त कर चला है। (उपाधि-वित्तरण में प्रवीण विहार में 'देशमान्य', 'देशरत्न' सादि के साथ ही कवि के छिए “राप्ट्रकचि' का उपयोग होने लगा है । इस तृप्णा से यदि कवि मुक्त होता तो “उद्गमस्थछी अदृद्य' (पू० १६३) जैसे सैकड़ों कर्ण- कट स्थलों से काव्य की रक्षा हो गई होती । इसके विरुद्ध कवि ने जहाँ-तहाँ ग्राम्य-प्रयोग भी किए हैं, जैसे “रार रोपेगार (पृ० १२९), 'प्राण-प्यारी” (प्र० १२). “महारानी” (पु० १००), आदि । इसी परम्परा में कुछ गौर भी प्रयोग हुए हूँ, जसे, '्रेमदेवता जी को' (पूृ० १७), 'देह करेगी ढीली” (प्ृ० १४) जो शालीन कथानक के सन्दर्भ में अक्षम्य होंगे । कुछ शब्दों को कवि ने जान-दूझकर अथवा अपने चिचार में शायद नरम करने के लिए बिगाड़ भी दिया है, जैसे “वादनियाँ (पृ० ७, २६), 'अप्सरियाँ' (पृ० ७, इ६, ११०, १११) भादि । वह परम्परा टिन्दी में सम्भवत: सोहनलाल द्विवेदी ने चलायी थी, जिसे में समझता




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