शिलीमुखी | Shilimukhi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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४ समालोचकनामा' १. समालोचक थूः त्रब से दस-वार्‌द वर्ष पहले, जब मैंने “सरस्वती” मैं कुछ लो चेनात्मक लेख स्ुपवाये थे, कतिपय सतक व्यक्तिया को पता लगा कि मैने श्रपना नाम 'शिली- मुस्व” रचस्वा हैं | संभवत: मेरे पूरे होख या लेखा से उन्हें यद्दी एक बात मालूम हुई । एक सयजन ने मेरे उपनाम पर आलप किया । उन्दे मेरे साथ शील का व्यवद्ार करने की दावश्यकता नदी थी, इसलिए, उन्होंने साफ ही कद टाला, “क्या श्ापने अपना नाम शिव्ीमुख्व इसीलिए रक्खा है कि द्याप डड्ड मारते हु? ्द्धापयाणु का कम करते है अथवा अप स्वयं वाण दी हैं ?” कहने से व्यंग्य का उद्देश्य पूरा नदी होता था, इसीलिए, उन्देंने इंक मारने के मुद्दाविरे का प्रयोग किया । सु पर तो राधा कि “मुभस बडे शिलीमुख शायद श्याप स्वयं हु” पर जुबान इस तरद स्वुल न सकी । शायद वह संस्कृत जानते थ, या शायद नहीं जानते थ; पर मेंने उन्दें बतलाया कि 'शिलीमुख' शब्द का एक अ्रोर मी रथ है । मैं रस के लिए; भटकता हूँ , और द्नेक जगह व्यथ, जहां सिवाय चयक के और कुछ नदी पाता । उस समय यदि आप चाहो तो श्रपनी शब्दावली में कह सकते हो कि में मिनशिनाने लगता हैं । तप एक दिन एक महोदय ने उन दिनों के “्रभ्युद्य' में मेरे चाबुक लगा दिये श्रीर फिर कुछ समय बाद ( या शायद कुछ समय पहले, मु ठीक याद नहीं है) बढ़ी महाशय एक प्रसिद्ध पत्रिका के संपादक के दफ्तर में मु फटकारने लगे । कारण, मैंने किसी पत्रिका के लिए, दी हुई उनकी कहानी को, संपादक के सुभस पूछने पर; ठीक नदी बताया था द्ोर वह छुपने से रुक गद६ थी । फटकार खाकर मंने कहा, ““श्रीमान सादब, श्राप बिल्कुल दुरुस्त फरमाते हैं कि में न समालोचना जानता हूँ , न साहित्य श्रौर न कहानी-तत््व । तथापि एक मूख व्यक्ति को भी अपनी सम्मति बनाने का झधिकार है शोर जब उससे उसकी सम्मति पूष्झी जाय तो बह उसे चाहे तो प्रकट भी कर सकता है |”? भ०ाणााण ना आणण जिन काल लय * याघरो, मर या जून सन १६९ हे ।




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