छेदसुत्ताणि ववहार सुत्तं | Chhedasuttani Vavahar Suttam

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Chhedasuttani Vavahar Suttam by मुनि श्री कन्हैयालालजी - Muni Shree Kanhaiyalalji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सम्पादकीय श्प्र (मध्यस्थ) रहकर सम्यक्‌ व्यवहार करता हुआ श्रमण-निग्नस्थ आज्ञा का आराधक होता हैं । मागम व्यवहार :- केवलज्ञानियों , मन:पर्यवज्ञाचियों भौर अवधिज्ञानियों द्वारा. आचरित या प्ररूपित विधि-निषेघ भागम व्यवहार है । नव पूर्व, दश पूर्वे और चौदहपूर्वंधारियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि- 'निषेघ भी आगम व्यवहार ही है ।* श्रतब्यवहार-- आठ पूर्व पूर्ण मीर नवम पूर्व अपूर्णघारी द्वारा आचरित या प्रतिपादित विधि-निषेध भी श्र तथ्पवहार है। दशा (आयारदशा-दशाश्रू तसकन्ध), कल्प (चुहत्कल्प), व्यवहार, माचारप्रकल्प (निशीध) आदि छेदश्रूत (शास्त्र) द्वारा निर्दिष्ट विधि-निषेध भी श्र तव्यवहार है । माज्ञाव्यवहार-- दो गीता्थ श्रमण एक दूसरे से अलग दूर देशों में चिहार कर रहे हों और निकट भविष्य में मिलने की सम्भावना न हो । उनमें से किसी एक को कल्पिका प्रतिसेवना का प्रायपिचत्त लेना हो तो अपने अतिचार दोष कहकर गीतार्थ शिष्य को भेजे । यदि गीताथं शिष्य न हो तो घारणाकुशल अगीताथथ शिष्य को सांकेतिक भाषा में अपने अतिचार कहकर दूरस्थ गीतार्थ मुनि के १. छाणं-श. उ० २ सु० ४२१ | तथा भग० श० ८. उ० ८. सू० ८.६ । २. आगम व्यवहार की कल्पना से तीन भेद किये जा सकते हैं--उत्क़ृष्ट, सध्यम भौर जघन्य । ह १-केवलज्ञानियों द्वारा आचरित या प्ररूपित विधि-निषेधपुर्ण उत्कृष्ट आगम व्यवहार है, क्योंकि केघलज्ञान सकल प्रत्यक्ष है । . र-मनःपयेंवज्ञान और अवधिज्ञान यद्यपि विकल (देश) प्रत्यक्ष है फिर भी थे दोनों ज्ञान आत्म-सापेक्ष हैं, इसलिये मन:पयेवज्ञानियों या अवधि ज्ञानियों हारा माचरित या प्ररूपित विधि-निषेध (मध्यम) भागम व्यवहार है । रे-चौदह पृ, दशपूर्व और नवपूर्व॑ (सम्पूर्ण ) यद्यपि विशिष्ट श्रूत है, फिर भी परोक्ष है, अत: इनके धारक द्वारा प्ररूपित या भाचरित विधि- निषेध भी आागम व्यवहार है, किन्तु यह जघन्य भागम व्यवहार है ।




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