वैराग्य तरंग गुरु काव्य गुंजन | Vairagye Tarang Guru Kavya Gunjan

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Vairagye Tarang Guru Kavya Gunjan by जिनहरि सागर - Jinhari Sagar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आंत्रिक॑ं उर्मीओ कि राझल अजब ! मस्ती जीवन जागी, अखैडानंद उभरायो; वहां झरणां कृपा सिंधु, रच्यां काव्यो अति हें नथी विद्वान के वक्ता, कविज्न ज्ञान अंतरमां; कूंपा ए इ्टनी प्रगटी, रच्यां काव्यो अति हर्ष भ्रमण करतो हतों जगमां, मव्यया महापुन्यथी साचा; भभो ए दिव्यनी छाया; रच्यां काव्यो अति हरे. हतो हुं शोधभां जेनी, युरुवर ए मव्या सुजने; प्रभो ! शांति सूरीश्वरजी, रच्यां काव्यो अति हर्षे. समप्यु छे जीवन सघढ्ध॑, स्वीकार्या अतरे सहारा; जीवन तारक परभो साचा, रच्यां काव्यो अति हर्ष. परमहूर्षे पडचो चरंगे, मूक्युं मस्तक कूपा सिंधु; उषाव्यो घोध अंतंरमां, रच्यां काव्यों अति हें. सदाए दिव्य झरणांथी, हुषा म्हारी छीपाईु ऊुँ; करूं छु स्नान हुं एमां, रच्यां काव्यो अति हषे« अरे हूं मूठ बुद्धिनो, नथी कंइई ज्ञान म्हारामां; अकारो छागतों सहुने) रच्यां काव्यो अति हर्षे बन्युं आ शुं अभो आजे, अजब शक्ति खीलावी छं; पुरी मस्ती . जगावी तें, रच्यां काव्यो अति हर्पे.




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