अर्थ वाणिज्य निबन्ध तरंग | Arth Vanijya Nibandh Tarang

Arth Vanijya Nibandh Tarang by एस॰ सी॰ सक्सेना - S. C. Saksena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[1 ११ दोना चाहिये, जिनमें शविक से श्रधिक व्यक्ति वाम करें एव जिनमें कम से कम पूंजी की 'झावश्यकता हो 1 ऐसे उद्योग झुटीर तथा लघु-उद्योग ही हो सकते हैं । हमारी दैनिक श्रावश्यकत। की इजारों वस्तुएँ इन उद्योगों द्वारा घनाई जा सकती हैं । ये उद्योग क्यों क्यों बढ़े रो, ट्यॉ-स्यों इनकी बनाई चीजों की माँय भी बढ़ेगी । फलत, बेकारी को नाश दोगा । इस प्रकार उत्पादन, उपाजेंन श्रौर उपभोग की श्रद्डुखा इन उद्योगों द्वारा ही सन्तुलित एव गतिशील हो सकती हैं । / र) औद्यामिक उत्पादन का समीन वितरण--देश की चहुँमुखी उन्नति के लिये भी डुटीर घर्न्दों की शरण लेनी पटेगी । दढे-बवे उदोर्गों के हरा देश का समान श्रौद्योगिक विकास सम्भव नहीं दे । वतसान समय में सादित उद्योगों का केन्द्रीयकरण किचित नगरों में ही है, जैसे---बग्बई, कलकत्ता; कानयुर इत्यादि । इससे उत्पादन का समान दितरण नहीं होता है, देश की चहुँमुखी उन्नति नहीं होती तथा ब्रास्तीं में परस्पर वेमनस्प होता है, जो एकता की दृष्टि से हानिकारक है । इसके श्रति+ रिक्त कैचल नगरों का ही विकास होमे से श्रोर गाँद की झोर ध्यान न देने से देश की श्राय एव उद्योग का समान वितरण न होकर देश का श्रार्धिक विकास एकागी होता हे, श्रतएद उद्योगों का विकेन्टरीयकरण श्रमिवार्य है, जिससे श्राधुनिक दज् पर सं लित कुदीर-घन्धों का विकास होकर वे सगड़ित बड़े-बड़े उद्योगों के लिये पूरक हो सकें । ( है ) राय को समान वितरण--बडे परिमाण के उद्योगों के द्वारा राष्ट्रोय झाप का एक बहुत बडा दिस्पा केवल कुछ भागों में ही केस्दिति हो जाता है तथा झाय का समान वितरण नहीं होता श्र समानता बदती हे । कुटीर-उद्योगों को श्रोह्साइन देने से ही यदद श्रसमानतर काफी सीमा तक दूर की जा सकती है । इस दृष्टि से श्री गाइगिल ने थ्रपने श्रार्थिक नीति सम्बन्धी वक्तव्य में कहा है--' झाघारभूत एव छोटे परिमाण के उद्योग धन्वों के विकास एव रोजगार के श्रवसरों को बढाने पर पयांत बल देना चाहिये, जिससे पाधिक झसमानता का घन्ते दो ।” * (४) श्रमजीवी एव पं जीपत्तिया के सम्बन्ध--यदेमान श्रीयोगिक श्रशास्ति का मुख्य कारण बडेन्बदे उद्योग ही हैं, अतणूव झोदोगिक शान्ति लाने के लिए कुटीर- उद्योगों को शोत्साइन देना झनिवाये हो जाता है । कुटीर-डद्योगों के न्तर्गत प्रत्येक सेवायुक्त ही सेवायोजक होता है, श्रम एव पूँजी में झधिक श्रन्तर नहीं होता है । यदि किसी कुटीर-उद्योग में श्रचिक श्र्तिक होते भी हैं तो स्वामी तथा नौकर की भावना नहीं होती ड1 इससे हृडतालें तथा साखे-बन्दियों नहीं दोतीं, ्वार्थिक उधल पुधल भी कम हो जाती है, मतिक्वन्दिता रहती है, किन्तु उसका रूप स्तम्थ होता है और गला घोटने वाली प्रतिस्पर्य नहीं होती है। इस प्रकार कुदीर-डद्योगों के द्वारा ही श्रीद्यो गिक शान्ति बी श्राशा की जा सकती है । (५) युद्ध तथा सुरक्षा--यदाँ यद कहना तो श्रतिशयोक्ति होगा कि छुटौर- * फिल्डणोपिफा फहा. 'छिंड डिदणागाफाद एिणाफट्क ४ है 1 0 ६ 5०9जाणा कण, छृप्द प्छ एप पा उप ₹ एबतडुप जा पकतीर उदा , 1932




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