विवेकानंद साहित्य जन्मशती संस्करण | Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran

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Vivekanand Sahitya Janmshati Sanskaran  by गंभीरानन्द - Gambheeranand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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श्द ईश्वर का दार्शनिक विवेचन नहीं है। जगत्‌ के परिचालन में केवल उसी परमेश्वर का हाथ है। सृष्टि आदि सम्बन्धी सारे इलोक उसीका निर्देश करते हैं। फिर “नित्य सिद्ध' विशेषण भी दिया गया है। शास्त्र यह भी कहते हैं कि अन्य जनों की अणिमादि झक्तियाँ ईइवर की उपासना तथा ईइवर के अन्वेषण से ही प्राप्त होती हैं। अतएव, जगल्नियन्तृत्व में उन लोगों का कोई स्थान नहीं । इसके अतिरिक्त वे अपने अपने चित्त से युक्त रहते हैं, इसलिए यह सम्भव है कि उनकी इच्छाएँ अलग अलग हों । हो सकता है कि एक सृष्टि की इच्छा करे, तो दूसरा प्रठय की । यह इन्द्र दुर करने का एकमात्र उपाय यही है कि वे सब इच्छाएंँ अन्य किसी एक इच्छा के अधीन कर दी जायें । अतः निष्कर्ष यह निकला कि मुक्‍्तात्माओं की इच्छाएँ परमेदवर की इच्छा के अधीन हैं ।”' अतएव भक्ति केवल सगुण ब्रह्म के प्रति की जा सकती है। 'जिनका मन अव्यक्त में आसक्त है, उनके लिए मार्ग अधिक कठिन होता है।” हमारी प्रकृति के प्रवाह पर ही भक्ति निर्विध्न संतरण करती रह सकती है। यह सत्य है कि हम म्रह्म के संबंध में कोई ऐसी धारणा नहीं बना सकते, जो मानवीय लक्षणों से युक्त नहों। पर कया यही वात हमारे द्वारा ज्ञात प्रत्येक वस्तु के सम्बन्ध में भी सत्य नहीं है ? संसार के सर्वश्रेष्ठ मनोवैज्ञानिक भगवान्‌ कपिल ने युगों पूर्व यह सिद्ध कर दिया था कि हमारे समस्त वाह्म और आन्तरिक विपय-ज्ञानों और धारणाओं में मान- चवीय चेतना एक उपादान है। अपने शरीर से लेकर ईक्वर तक यदि हम विचार करें, तो प्रतीत होगा कि हमारी प्रत्यक्षानुभूति की प्रत्येक वस्तु दो वातों का मिश्रण है--एक है यह मानवीय चेतना और दूसरी है एक अन्य वस्तु,--यह अन्य वस्तु जो भी हो। इस अनिवायं मिश्रण को ही हम साघारणतया 'सत्य' समझा करते हैं। और सचमुच, आज या भविष्य में, मानव-मन के लिए सत्य का ज्ञान जहाँ तक सम्भव है, वह इसके अतिरिक्त और अधिक कुछ नहीं। अतएव यह कहना . कि ईइवर मानव धर्मवाला होने के कारण असत्य है, निरी मूखंता है। यह वहुत कुछ पाइचात्य आदरशंवाद (#त८४ंडण्ण ) और यथार्थवाद (7८570 ) के झगड़े के सदुद्च है। यह सारा झगड़ा केवल इस “सत्य शब्द के उछूट-फेर पर आधारित है। “सत्य' शब्द से जितने भाव सूचित होते हैं, वे समस्त भाव 'ईद्वरभाव' में भा जाते हैं। ईर्वर उतना ही सत्य है, जितनी विक्व की अन्य कोई चस्तु। और चास्तव में, “सत्य दाव्द यहाँ पर जिस अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, उससे अधिक 'सत्य' झाब्द का और कोई अथ नहीं । यही हमारी ईरवर सम्बन्धी दार्शनिक धारणा है । १. न्ह्मसुत्र, द्वांकर भाष्य ॥४1४1 १७1 २. वलेशोध्घिकतरस्तेषामव्यक्तासवतचेतसाम्‌ ॥ गोता ॥ १२1१५ -र




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