इक्कीस कहानियाँ | Ikkiisa Kahaaniyan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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&. इवकीस कहानियाँ ठीक यहीं बात है । नग्न चित्रण हमारे परिज्ञान को पीछे बढ़ाते है, वासनाओं को पहले । आख्यायिका की दाक्ति कहानीकार अपनी भवना एवं उसकी अभिव्यक्ति के लिए अपेक्षित कल्पना का शब्द-चित्र प्रस्तुत करके हमारे संवेदन को इतना तीत्र कर देता है कि वह शब्द-चित्र सजीव रूप धारण करके हमारे सामने अभिनय करने लगता हैं और हमें उन दृश्यों एवं घटनाओं की अनुभूति होने लगती है। इस अनुभूति किवा प्रतिक्रिया में ही हमें “रस' मिलता है, जो सारे पाधिव अर्थात्‌ इन्द्रियजन्य आस्वादों से पृथक्‌ अतएव लोकोत्तर होता है; गीता के शब्दों में--सुखमात्यन्तिकं यत्तदुबुद्धि ग्राहयमंती - न्द्रियम्‌ । इस स्वाद का स्थायी प्रभाव हम पर बना रहता हूँ और हमारे आन्तरिक विकास का कारण होता हैं । कुछ परिवतंन के साथ आचायं शुक्लजी के शब्दों में--“ वत्त॑ंमान जगत्‌ में उपन्यास, आख्यायिकाओं की बड़ी शक्ति है। समाज जो रूप पकड़ रहा है, उसके भिन्न-भिन्न वर्गों में जो प्रवृत्तियाँ उत्पन्न हो रही है उपन्यास, आख्यायिकाएँ उनका प्रत्यक्षीकरण ही नहीं करती, आवइ्यकता- नुसार उनके ठीक विष्यास, सुधार अथवा निराकरण की प्रवृत्ति भी उत्पन्न कर सकती हैं ।” इतना ही नहीं, इनसे भी गहरी, गम्भीर और चिरकालीन परिस्थितियों को, जो हमें नाश की ओर लिये जा रही हैं, ठीक-ठिकाने लाना भी उन्हीं का काम है; किन्तु ऐसा न तो अनास्था से किया जा सकता है, न नंगापन-फूहड़पन से । इसके लिए तो वहीं सहानुभूति अपेक्षित हू, जिसकी चर्चा ऊपर हो चुकी है । सत्य, शिवं; सुर्दरमू कहानीकार भी दूसरे कछाकारों की भाँति, अपनी कृतियों द्वारा हमें ऐसा प्रभावित कँसे कर पाता है, अभी इसकी कुछ चर्चा की जा चुकी है अब तनिक और ब्योरे में पैठा जाता है--कलाकार को अभिव्य- क्तियों का रूप रमणीय, अतः पुरअसर होता है । यह रमणीयता उस ददं




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