श्रीमद्भगवग्दीता रहस्य | Shrimadbhagwaditarashya

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Shrimadbhagwaditarashya by बाल गंगाधर तिलक - Bal Gangadhar Tilak

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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प्रस्तावना । श्र अध्यात्म-दृष्टि से इन प्रभों का विचार अब तक हो रहा है और इन साध्या- त्मिक ग्रन्थकारों के विचार गीताशाख््र के सिद्धान्तों से कुछ अधिक भिन्न नहीं हूं। गीतारइस्य के मिन्न भिन्न प्रकरणों में जो तुलनात्मक विवेचन हैं, उनले यह बात स्पष्ट दो जायगी । परन्तु यह विषय अत्यन्त व्यापक है, इस कारण पश्चिमी पण्डितों के मर्तों का जो सारांश विभिन्न स्थलों पर हम ने दे दिया है, उसके सम्बन्ध में यहाँ इतना बतला देना आवश्यक है कि गीतार्थ को प्रति- पादन करना ही हमारा मुख्य काम है, अतएव गीता के सिद्धान्तों को प्रमाण मान कर पश्चिमी मतों का उछेख इमने केवल यही दिखलाने के लिये किया है कि, इन सिद्धान्तों से पश्चिमी नीतिशाख्रज्ं अथवा पण्डितों के सिद्धान्तों का कहाँ तक मेल है । और, यह काम हमने इस टँँग से किया है कि जिस में सामान्य मराठी पाठकों को उनका अथे समझने में कोई कठिनाइ न हो। अब यदद निर्विवाद है कि इन दोनों के बीच जो सूइम मद हैं,---जौर ये हैं भी बहुत--अथवा इन सिद्धान्तों के जो पूर्ण उपपादन या विस्तार हैं, उन्हें जानने के लिये मूल पश्चिमी अन्थ ही देखना चाहिये। पश्चिमी विद्वान्‌ कहते हैं कि कर्म-अ कर्म - विवेक अथवा नीतिशास्र पर नियम-बद्ध ग्रन्थ सब से पहले यूनानी तत्त्ववेत्ता अरिश्टाटल ने लिखा है। परन्तु इमारा मत है कि अस्स्टाटल से भी प्ले, उसके ग्रंथ की अपेक्षा अधिक व्यापक आर तात्विक दृष्टि से, इन प्रभों का विचार मद्दाभारत एवं गीता में हो चुका था; तथा अध्यात्मदृष्टि से, गीता में जिस नीतितत्त्व का प्रतिपादन किया गया है, उससे भिन्न कोई नीतितत्व अब तक नहीं निकला है । ' संन्यासियों के समान रद्द कर तत््वज्ञान के विचार में शान्ति से भायु बिताना अच्छा है, अथवा अनेक प्रकार की राजकीय उथला-पथल करना भला है”--इस विषय का जो खुलासा अरिस्टाटल ने किया है वह गीता में है, और साक्रेटीज के इस मत का भी गीता में एक प्रकार से समावेश हो गया है कि ' मनुष्य जो कुछ पाप करता है, वह अज्ञान से ही करता है ।' क्योंकि गीता का तो यही सिद्धान्त है कि ब्रह्मज्ञान से बुद्धि सम हो जाने पर, फिर मनुष्य से कोई भी पाप हो नहीं सकता । एपपिक्युरियन और स्टोइक पन्‍्थों के यूनानी पण्डितें का यह कथन भी गीता को ग्राह्म है कि पूर्ण अ- वस्था में पहुँचे हुए शानी पुरुष का व्यवहार ही नीतिदृप््या सब के लिये आदर्श के समान प्रमाण है; और इन पन्थवारलों ने परम ज्ञानी पुरुष का जो वणन किया है वद्द गीता के स्थितप्रश अवश्थावाले वर्णन के समान है । मिल, स्पेंसर भोर कॉंट प्रभति आधिभौतिक-वादियों का कथन है कि नीति की पराकाष्टा अथवा कसोटी यही है कि प्रत्येक मनुष्य को सारी मानवजाति के द्विता्थ




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