हिन्दी जैन साहित्य परिशीलन भाग 2 | Hindi Jain Sahitya Parishilan Bhag 2
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
7 MB
कुल पष्ठ :
256
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)वर्समान काव्यधारा और उसकी चिसिश्च प्रबूत्तियाँ ३१
नह भककार विहाय रत्न के,
अनूप रत्तघ्रप शूवितांग हो।
तने हुए अम्बर अंग-ंग से,
दिगम्बराकार विकार शून्य हो ॥
समीप ही जो परदेव दृच्य दे,
नितास्त इवेताम्बर सा बना रहा।
अप्रंथ निर्दग्द मदान संयमी,
बने हुए दो निजधर्म के ध्वजी ॥
वस्तु-वर्णनमें महाकाव्यकी दृष्टि घटना-विधान, दृश्ययोजना और
परिर्थिति-निर्माण--ये तीन तत्व आते हैं । वद्ध मानकी कथावस्तुरें प्रायः
दृद्य-योजना तत््वका अभाव है । घटनाविधान और परिस्थिति-निर्माण
इन दोनों तत््वॉकी बहुलता है । कथविने इस प्रकारका कोई दृश्य आयों-
जित नहीं किया है जो मानवकी रागात्मिका छत्तन्तरीकों सदज रूपमें
झकत कर सके । घटनाओंका क्रम मन्यर गतिसे बढ़ता हुआ आगे
लता है. जिससे पाठकके सामने घटनाका चित्र एक निश्चित क्रमके
अनुसार ही प्रस्तृत होता है ।
मददकाव्यकी आधिकारिक कथावस्तुके साथ प्रासंगिक कथावस्तुका
रहना भी मददाकाव्यकी सफलताके लिए; आवश्यक अग है। प्रासंगिक
कथाएँ मूलकथामे तीन्रता उत्पन्न करती हैं |
बरद्धमान काव्यमे अवान्तर कथा रूपमें चन्दनाचरित, कामदेवसुरेन्द्र
संवाद तथा कामदेव-द्वारा बद्धमानकी परीक्षा ऐसी मर्मस्पर्शी अवान्तर
कथाएँ है, जिनसे जीवनके आनन्द और सौन्दर्यका आभास दी नहीं होता
प्रत्युत सौन्दर्यका साक्षात्कार होने लगता है ।
जगत और जीवनके अनेक रूपी और व्यापारोपर विमुग्ष होकर
कविने अपनी विभूतिको 'चमत्कारपूर्ण दंगसे आविसूंत किया है। मार्वोको
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