समयसार द्र्ष्टांतमर्म | Samayasar-drashtantamarm
श्रेणी : जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3 MB
कुल पष्ठ :
90
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)समयसारटष्टान्तस में (११)
रमत--जव यदद जीव श्मात्मा और परके स्वरूपकों यथाथं जान
जाता है सबकों अपनेसे भिन्न मान लेता है तो ऐसा ज्ञान दो परपदार्थोका
व परभावोंका स्याग है । जैसे दो पुरुप एक घोवीके अपने अपने चादर
धोने ढाल छाये थे । एक पुरुष पदिले उसके यहां से चादर उठा लाया; किन्तु
चद्द दूसरे पुरुषकी थी उसे यह पता नहीं था सो उल्तको झपनी ही चादर
सममकर इसे छोड़कर निर्भय सो गया । झव दूसरा पुरुप चादर उठाने
को धोवीके गया हो उसे झपनी चादर न मिली-। घोवी जो दे रहा था वह
उसकी न थीं । तब धोवीने वताया कि झापकी चादर झमुकके यहां पहुंच
गई । दूसरा पुरुष पहिले पुरुषके घर गया वहां वदद सो रहा था सो 'चादूर
का एक छोड़ पकड़कर भटककर दूसरा पुरुष कहने लगा कि भाई जागो
जागो, यद्द चादर छापकी नहीं है मेरी हे चदलेमें ला गईं है। वार वार
ऐसा कद्दा तब चद्द जागा और झपनी चादरके जो चिह्न थे; उन्हें देखने
लगा । जव उसे अपनी चादरके चिह्न नट्दीं मिले तो व६ उस 'चादरको
उसी समय परकीय सममकर 'अलग कर देता है । शरीरसे दटाकर देनेमें
चाहे,विलंव दो जावे भीतरसे तो छूट ही चुकी । यद्दां देखलो-वास्तवसे
ज्ञान दी त्याग है । वैसे दी यद्द झात्मा भ्रमसे कपायादिक 'ीपाधिक
भावींको अ्रदण करके छापने मानकर 'झपनी शात्मामें निश्वय करके
मोइनींदमे सोता हुआ स्वयं 'अज्ञानी वना । उसे जव श्री गुरु परभावका
विवेक कराके उसे स्वयंके एक रूपका मान कराते हैं; जगाते हैं; दे
ब्मात्मन् ! जल्दी जागो प्रतिवोध करो यह आत्मा एक चैतन्यमात्र है ये
परभाव तेरे स्त्रभाव नहीं हैं । वार वार दितमय गुरुवाक्य सुनकर उसने
समस्त चिन्दोंसे मलीभांति परीक्षा की और निश्चित कर लिया कि मैं
चैतन्य सात्र हूँ छौपाधिकमाब मैं नहीं हूँ ऐसा ज्ञान व श्रद्धान हुआ कि
उन सब परमभावोंका त्याग दो गया । व चाहे ्ञात्मभूमिसे उनके इटने
में चाहे कुछ विलंब भी लगे तो भी भीतरसे तो छूट दी गया । इसलिये
ज्ञान ही प्रत्याख्यान याने त्याग है ।
ग९६- में बेतन्यमात्र हैँ, मोद परभाव है। चेतन्यका और मोदका
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