ज्ञानार्णव प्रवचन भाग - 12, 13, 14, 15, 16, 17 | Gyanarnav Pravachan Bhag - 12, 13, 14, 15, 16, 17

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Gyanarnav Pravachan Bhag - 12, 13, 14, 15, 16, 17 by श्री मत्सहजानन्द - Shri Matsahajanand

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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` ११ ] ज्ञानाणव ` प्रवचन द्वादशं भाग आश्रय करते हैं, और उनके किसीपर भी राग और हो प॑ नहीं योता । | चेन्मामुदिश्य भ्रश्यन्ति शीलशेलात्तपस्विनः । श्ममी श्रतोऽत्र मज्जत्म परक्लेशायं केवलम्‌ 11९ ३७) क्रोघापहारके यत्लमे ज्ञानीका चिन्तत--ज्ञानी संत ऐसा भी विचार करते हैं. कि यदि मैं क्रोध करु' तो मुमे निरुवकर्‌ अन्य-अन्य तपस्वी सुनि भी अपने शील शान्त स्वभावसे च्युत इौ .जयेगे त्व्‌ फ़िर मेरा जन्म दूसरोंके अपकारके लिए हुआ, धर्मकी अप्रभावनाके लिए हुआ । इस कारण मुझे क्रोध करना किसी, भी प्रकार उचित नहीं है । जो पुरुष जैन कुलमें उत्पन्न हुए और समाजमे बड़े माने जाते है, समाजके लोग भ महान सममकर जिसके हुक्ममें भी रहना चाहते है ऐसे वे समाजके बड़े प्रमुख यदि घर्मके विरुद्ध चलते हें. या धर्मकार्यमें अपना कुछ भी सहयोग नहीं देते, उन पुरुषोंके यरा धर्मकी अप्रभावना £ ओर लोर्गोका अकल्याण भी हो रहा है, क्योंकि साधारणजन तो उस घड़े पुरुषकी चर्या निरखकर अनुकरण करेंगे और जिन नगरोंमें समाजके प्रमुख धनिक विद्वान धर्ममार्गमें चलते हैं वे धर्ममें अपने लिए भी प्रभावना करते हैँ और लोगोंका उपकार भी करते हैं। तो यहाँ मुनिराज विचार कर रहे कि यदि में क्रोध करू' त्तो मुके देखकर और-और तपरवीजन अपने शुद्ध स्वभावसे भ्रष्ट हो जायेंगे, तो मैंने कितना अनथे किया, कितना हमने उन सततोंका अपकार किया । उसका जन्म व्यथ्थ है जो,दूसरोंके अपकारके लिए अथवा क्लेशके लिए वने । प्राग्मया यत्कृतं कमं तन्मयेवोपमुज्यते । मन्ये निमि्तमात्नोऽन्यः सुखदुःखोद्यतो जनः ॥६ २६॥ जन्य प्राणीर्को सुख दु खमे निमित्तमात्र जीर सपने कृत कर्मको हेय जानकर क्रोध न करलेका क्नानीका यलल~-फिर भी विचार करते हैँ जो मुमे ये दुःख द्वो रहे हैं, विपत्ति क्लेश उपसगे आ रहे हैं तो मैंने पूर्व जन्ममें कोई पाप- कम किये होंगे उनका फल मुझे ही तो भोगना होगा। जैसे भी कर्म यह जीव पूर्वकालसे करता है उसका फ्ल उसे भोगना पडता है यदि कोई कष्ट आये तो इतना तो निश्चित है ही कि कमोकी निर्जरा हो रही है, उन फर्मोकी जिन पापकर्मोके उदयमे यह विपदा आ रही है, तो इसमें मेरा वोक ही तो हृत्का हो रहा है। और इसको उदाहरणसे समना दो तो णक वहत प्रसिद्ध सिद्धान्त है कि नारकी जीव मरकर उस भदक वाद नरक म नदीं जाता । क्यो नदीं जाता ? वहाँ इतने क्लेश भोग रहे थे कि उसमें पापकर्म निखरते जा रहे थे। संक्लेश भी कर रहा है नारकी, किन्तु कमे अधिक निखर रहे द । इसके परिणाममें फिर नरक जैसी गति तुरन्त नहीं भिललती । फिर नरक जानेके लिए मनुष्य या तिर्यञ्च वनना होगा ओर पापकर्म करते होगि तव नरक गतिम जन्म होगा । तो एेसे दी सममः लीजिए कि दर्भे इस जीवनमें को क आते ह) उपमं हीते है, विपदाय आती हैं तो यह भी भलेके लिए हो रही है । हम वहाँ समता परिणाम बनायें कि जिससे आगामी कालके लिए फिर विपठा न आये और वर्तेमानमें भी वे सब तीत्र पाप अथवा कठिन कष्ट थोड़े रूपमें रहकर ' खिर जायें। विचार करते हैँ संतजन कि मैंने पूर्व जन्ममें भले अथवा सुरे जिस अकारके कमे किये हैँ उनका फल भोगता ही तो पड़ेगा । जो कोई भी हमे सुख दुख देनेके लिए तत्पर दू वे केवल वाह्य निमित्त माच हैं 1 वात तो सब मेरे करनेके अनुसार हुई है अतएव में इन दूसरे जीवोपर क्यों क्रोध करू' । जो चुरी स्थिति भी आये तो उसमें किसी दूसरेने क्‍या किया ? मैंने जैसे कर्म वॉधा वैसा उठयमे आ रहा है। और, यह चात सही है कि जीवॉफो जितने सी सुख दुख होते दे वे उनके फर्मानुसार होते हैं। समयसार जँसे अध्यात्मगन्थमें भी स्वयं भूल रचयिता झुन्दकुन्दाचायने और उनके टीकाकार अमृतचन्द्रजी सूरि और जयसेनाचार्यने भी यह चात स्पष्ट कर दिया कि कौ दूसरा पुरुष मुझे सुख अथवा दुख नहीं देता, किन्तु जैसा जौ कुछ कर्म है उसके अनुसार सुख अथवा दुःख द्वोता है। यहाँ ज्ञानी संत पुरुष ऐसा विचार रहे दूँ कि पूर्व जन्ममें जैसे भी कर्म किये उनका यद उदय सा रहा है । उसमें में दूसरे पुरुषपर क्यों कोघ करू । फिसी दूसरेने क्या किया मेरा | === १ ~ ¬+ ~ च এ উপ তি न क “कु भ




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