प्रवचनरतनाकर भाग -३ (समयसार गाथा ६९ से ९१ तक ) | Pravachanratanakar Volume-3 (samayasar Gatha 69 Se 91 Tak)

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Pravachanratanakar Volume-3 (samayasar Gatha 69 Se 91 Tak) by श्री कानजी स्वामी - Shree Kanji Swami

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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अचुवादक को ओर. से- “1.:' जब परमपूज्य ।झाचायों के श्रोध्यात्मिक: ग्रन्थों. प्रर हुए पूज्य गुरुदेव श्री कानजी स्वामी के शूढ़, गम्भीर, गहनतमे, सुकष्म और तलस्पर्शी प्रवच्चनों का. गुजराती से हिन्दी भाषा में भ्रनुवाद करने के लिए मुभसे कहा गया तो मैं श्रसमंजस में पड़ गया । मैंने.यह -सोचा ही नहीं था कि यह प्रस्ताव मेरे पास भी श्रा सक़ता है.। *. +झब एक ओर तो मेरे सामने यह मंगलकारी, भवतापहारी, कल्याणकारी, झात्मविशुद्धि में निमित्तभ्ुत कार्य करने का स्वर्ण झवसर था, जो छोड़ा भी नहीं जा रहा था; तो दूसरी श्रोर इस महान कार्य को ्राद्योपान्त , निर्वाह करने,. की बड़ी भारी जिम्मेदारी । मेरी दृष्टि में यह केवल भाषा परिवर्तन का सवाल ही नहीं है, बल्कि झागम के अझभिप्राय को.सुरक्षित रखते हुए, गुरुदेवश्री की सूक्ष्म कथनी के भावों का श्रबुगमन करते हुए, /प्रांज़ल हिन्दी भाषा में उसकी सहज व सरल भ्रभिव्यक्ति होना मैं,प्रावश्यक मानता हूँ;, श्रन्यथा थोड़ी सी चूक में ही भ्रथें का भ्रनयें भी हो सकता है । के का: अं इन सब बातों पर गम्भीरता से विचार करके तथा. दूरगामी झात्मलाभ.के सुफल काः विचार:कर, -प्रारंभिक परिश्रम श्रौर कठिनाइयों की परवाह, करके “गुरुदेवश्री के मंगल श्राशीर्वाद से सब झ्रच्छा ही होगा - यह सोचकरें,मैंने -इस-काम को श्रम्ततोगत्वा भ्रपने हाथ में ले ही लिया । इस कार्यभार को संभालने में एक संबल यह भी था कि इस हिन्दी प्रवचन- रत्ताकर ग्रन्थमाला के प्रकाशन का कार्य पं० टोडरमल स्मारक ट्रस्ट जंयपुर ने ही संभाला था श्रौर सम्पादन का का्यें डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल को सौंपाजा रहा था। व यद्यपि गुजराती भाषा पर मेरा कोई विशेष अधिकार नहीं है, तथापि पूज्य गुरुदेवश्री के प्रसाद से उनके गुजराती प्रवचन सुनते-सुनते एवं उन्हीं के प्रवचनों से सम्बन्धित सत्साहित्य पढ़ते-पढ़ते उनकी शैली श्रौर भावों से सुपरिचित हो जाने से सुभे इस श्रनुवाद में कोई विशेष कठिनाई नहीं हुई । जहाँ कहीं गुजराती भाषा का भाव समक में नहीं श्राया, वहाँ झपने झनुज डॉ० हुकमचन्द भारिल्ल से परामर्श करके गुजराती भाषा के भाव को स्पष्ट करता रहा हूँ ।




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