संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास | Sanskrit Patrkarita Ka Itihas

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Sanskrit Patrkarita Ka Itihas by डॉ. रामगोपाल मिश्र - Dr. Ramgopal Mishr

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( १४ ) से मैं प्रनेक वार उपकृत हुभ्रा हूँ। श्राप दोनों का आभार प्रकट करने में आनन्द का अचुभव करता हूँ । दिल्‍ली में प्रस्तुत पुस्तक के प्रकाशन के लिए सतत प्रेरणा देने वाले विश्व- विश्वुत विद्वातू प्रो० रसिक विहारी जोशी, आाचायें तथा अध्यक्ष, संस्कृत विभाग, दिल्‍ली विद्वविद्यालय, दिल्‍ली का मैं बहुत ही हृदय से आभारी हूँ। झ्रत्यधिक व्यस्त रहने पर भी पुरोवाक्‌, जिसे मैं अपने लिए सिद्धवाक्‌ मानता हूँ. लिखकर मेरे ऊपर श्रपोर झ्नुग्रह लिया है । उनके प्रति हादिक श्राभार प्रकट करना अपना पुनीततम कहंव्य समझता हूँ । इस कार्य को मैंने बड़े ही धैर्य और निष्ठा से किया है। इस कार्य में परिश्रम तथा धन श्रधिक लगा है परस्तु इस परिश्रम में मु प्रानन्द मिला है । प्रकाशन के समय में गृह कार्यों से सवंधा मुक्ति एवं सहयोग प्रदान करने चाली पत्नी श्रीमती झ्राभा मिश्रा वा भी उपकत हूँ । अ्रम्जकल्प डा० मधघुसूदन मिश्र एम ०ए०,पी-एचू ०डी ०, उपनिदेशक, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान दिल्‍ली का मैं बहुत ही हृदय से श्राभारी हूँ जिनसे स्वेच्छा से सतत परामदं करता रहा हूँ । दयाम प्रिंटिंग एजेंत्सी के भ्रक्षर संयोजक विधि च्द श्रौर रामधनी को धन्यवाद देता हूँ, जिन्होंने लगन के साथ शीघ्र प्रकाशन में सहयोग दिया है । यह कार्य प्रेस के मालिक श्री दाम लाल की मैत्री से समय पर हो पाया है । उनकी प्रगति की कामना करता हूँ और उनके सहयोग के लिए. घन्यवाद देता हूँ । भारत के प्राय: सभी विश्वविद्यालयों के पुस्तकालयाध्यक्षों ने मेरी भरपुर सहायता की है । इसी प्रकार काशी नागरी प्रचारिणी राभा, सरस्वती भवन तथा विद्वनाथ पुस्तकालय काशी के अधिकारिश्रों को. साल्‍्जलि प्रणाम करता हूँ, जिन्होंनें मेरे साथ स्वयं कार्य कर निष्काम कमें को सार्थक किया है । काशी ऐसी नगरी है जहाँ से प्रथम सस्कृत पत्रिका निकली तथा संख्या में भी काशी श्राज तक अग्रणी है। इनके अधिकारियों के प्रति झाभार प्रदर्शित करता हूँ । अपनी अत्पमति से ययथासाध्य प्रयास एवं सीमित साधनों का उपयोग फर यह पुस्तक सस्कृत के मचीपियों से कर-नमलों मे है । इस विशाल कायें छषेत्र में मैने अनेक सम्पादकों के कृतित्व को प्रकाश में लाने वग प्रथम उपक्रम किया है । तनुवागूविभव होने पर थी यथेप्ठ विवेचन करने का प्रयत्न किया गया है। संस्कृत तथा संस्कतेतर पत्न-पत्रिकातओं में प्रकाशित वाइमसय का सर्वेक्षण प्रस्तुत पुस्तक में अर्थाभाव के कारण नहीं दिया जा रहा है।




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