संस्कृत काव्यशास्त्र का इतिहास भाग - 1 | Sanskrit Kavyashastra Ka Itihas Bhag-1

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Sanskrit Kavyashastra Ka Itihas Bhag-1 by Dr. Sushil Kumar - डॉ. सुशील कुमार

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मर्म ५ र अन्कारो क याक्ष्वीय निरूपण की दिशा मे निशि, क्नु बुछ स्थल विया-कलापं का प्रमाण निधदु और निरुक्त में मिलता है। मापा के सामान्य रुप को विशेषत्राओं के अनुसधात से--जिसका अ्रारभ प्राच्ीनकाल से ही हो चुका या-- स्पष्ट ही लोगो का घ्यान अछकारों के विश्लेषण की ओर आकृष्ट हुआ, स्तु किर भी बह शर्त केवल भाषा-सत्रंधी दृष्टिकोण से सवद्ध रहा था। निरुक्त में पारि- भाषिक पथ में अछकार श्क्द का प्रयोग नही मिलता, क्नु यास्क्र ने 'अलकरिप्णु! झब्द को “जर्ंकुत करने के स्वभाववाला” के सामान्य बर्थ में प्रवुक्त कया है। प्राणिति में ईए. 2. 136 में इसकी व्यास्या क्षी है और स्पष्टत' शतपथ ब्राह्मण { स, 8.4. 7; आ. 5. 1. 36 ) सौर दादोम्य उपनिषद ( प. 8.5 } में यह झब्द इसी अये में आया है। निघदु (शा 13) मे वैदिक 'उपमा' के बारह भेदो को योतित करनेवरारे गन्दो की एक सूची सन्निविष्ट षै, जिनके दाहरण निरक्त 1, 4, 11. 13-18 और 15.6 ) में दिए गए हैं। इनमें से ट्व , चया , “न चित्‌ , नुः ओर 'आ निषातों में उद्दिप्ट छह भेदो की चर्चां यस्क ने “उम निपात. का विवेचन करते समय की है (1.५) गौर अंशतः इन्द 'कर्मोप्मा' के अंतर्गत भी सम्मिलित किया है ( फ. 15 ) | कलदचात्‌ यास्व ने भूनोपमा सौर र्पोपमा का उन्लेल किया है। भूतोपमा में 'उपमित” आवरण या व्यवहार मे “्पमान' तुष्य हो जाता है और 'रपोपमा” मे “उप्मित' का रूप उपमान ঈঅলান হী আলা है। उपमा के चनु प्रकार में “यया' निपात का प्रयोय वाचक दझह्द के रूप में होता है। अनतर तिद्धोपमा का वंन है, जिममे तुलना का मान सुमिद्ध (मम्बद सिद्ध) है ओर यह्‌ (मान) “वन्‌” प्रत्यय के प्रयोग्र द्वारा विशिष्ट ग्रुथ गौर्यां अन्य चमे वकर टदै) उप्रमा का अंतिम भेद ुप्योपमा' अवा अर्ोपना हैं ( जिसे परवर्ती सेद्धातिको ने रूपक' कहा है)। इसका उदाहरण प. 18 ( सौर 35. 6 ) मे भिलता है, जहाँ प्रतं सावाचक सिह बौर “व्याश्च' तवा निहावाचक् द्रन्‌ और काकः ब्दो के लोकप्रिय प्रयोग का उदाहरण दिया गयादहै। यास्क ने केवल तुवना्थेक निषातों का निर्देश करने के लिए তপন হাহ কা प्रयोग कियारै ( 9.3 }। तुलना का महत्व सामान्यतः 3. 19, 57 1४. 11, १. 22 और हां 13 में भी निर्दिष्ट हैं ॥ उत्व की कुछ जातहारो अवस्य थी 1 जर्तेल बाफ दि डिपार्टमेंट आर लेट, कलकत्ता विश्वविद्यालय, 5, 1923, पृ० 100 में दो० एन» भरट्टाचाय के लेख का भो अवलोकन करें ॥




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