स्थानांगसूत्र | Sthananga Sutra

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Sthananga Sutra  by ब्रजलाल जी महाराज - Brajalal Ji Maharaj

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ने श्रपने-भ्रपने गण सुधर्मा को समपित किये थे क्योकि वे सभी गणधरों से दीघंजीवी थे ।१९ आज जो हादशांगी विद्यमान है वह गणधघर सुधर्मा की रचना है । कितने ही ताकिक भ्राचायों का यह श्रभिमत है कि प्रत्येक गणघर की भाषा प्रथक्‌ थी । इसलिए दादशांगी भी परथक्‌ होनी चाहिए । सेनप्रश्न ग्रन्थ मे तो आचायं ने * यह प्रश्न उठाया है कि भिन्न-भिन्न वाचना होने से गणधघरो मे साम्भोगिक सम्बन्ध था या नहीं * भर उन की समाचारी मे एकरूपता थी या नहीं ? श्राचायें ने स्वय ही उत्तर दिया है कि बाचना-भेद होने से सभव है समाचारी मे भेद हो ' श्रौर कथचित्‌ साम्भीगिक सम्बन्ध हो । बढ़त से भ्राधुनिक चिन्तक भी इस बात को स्वीकार करते हैं । भ्रागमतत्ववेत्ता मुनि जम्बूविजय जी ने झावश्यकचूणि को श्राघार बनाकर इस तर्क का खण्डन किया है । उन्होने तक॑ दिया है कि यदि पृथक-पृथक वाचनाभों के भ्राघार पर द्रादशागी प्रथक-पृथक्‌ थी तो श्वेताम्बर और दिगम्बर के प्राचीन प्रन्थो मे इस का उल्लेख होना चाहिए था । पर वह नहीं है । उदाहरण के रूप मे एक कक्षा में पढ़ने वले विद्याथियों के एक ही प्रकार के पाठ्यग्रन्थ होते हैं । पढ़ाने की सुविधा की दृष्टि से एक ही विषय को पृथक पृथक श्रध्यापक पढ़ाते हैं । प्रथक्‌-पृथक श्राध्यापकों के पढ़ाने से विषय कोई पृथक्‌ नही हो जाता । वैसे ही प्रथक्‌-पृरथक्‌ गणधघरों के पढ़ाने से सुत्ररचना भी पृथक नहीं होती । श्राचायं जिनदास गणि महत्तर ने भी यह स्पष्ट लिखा है कि दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात्‌ सभी गणघर एकान्त स्थान मे जाकर सुत्र की रचना करते हैं । उन सभी के भ्रक्षर, पद भौर व्यड्जन समान होते हैं। इस से भी यह स्पष्ट है कि सभी गणधघरों की भाषा एक सदृश थी । उसमे पृथकता नहीं थी । पर जिस प्राकृत भाषा में सूत्र रचे गये थे, वह लोकभाषा थी । इसलिए उसमें एकरूपता निरन्तर सुरक्षित नहीं रह सकती ! प्राकृतभाषा की प्रकृति के अनुसार शब्दों के रूपों में सस्कृत के समान एकरूपता नहीं है । सम- वायाग* * श्रादि मे यह स्पष्ट कहा गया है कि भगवान्‌ महावीर ने श्रधेमागधघी भाषा में उपदेश दिया । पर श्रघे- मागधी भाषा भी उसी रूप में सुरक्षित नहीं रह सकी । आज जो जैन श्रागम हमारे सामने हैं, उनकी भाषा महाराष्ट्रीय प्राकृत है । दिगम्बर परम्परा के आगम भी श्रधघंमागधी मे न होकर शौरसेनी प्रधान हैं, भ्रागमों के श्रनेक पाठान्तर भी प्राप्त होते हैं ।1** जैन श्रमणों की आचा रसहिता प्रारम्भ से ही अत्यन्त कठिन रही है । पश्रपरिग्रह उनका जीवनब्रत है । अपरिग्रह महाद्वत की सुरक्षा के लिए आगमो को लिपिवद्ध करना, उन्होने उचित नहीं समम्या । लिपि का परिज्ञान भगवान्‌ ऋषभदेव के समय से ही चल रहा था । * * प्रज्ञापना सूत्र मे भ्रठारह लिपियो का उल्लेख मिलता है ।* 5 १६. सामिस्स जीवते णव कालगता, जो य काल करेति सो सुधम्मसामिस्स गण देति, हृदभूती सुधम्मो य सामिम्मि परिनिव्वुए परिनिव्वता ! उाभावश्यकचूणि, पृ ३३९ १७. तीर्थकरगणभृता मिथो भिन्नवाचनत्वेडपि साम्भोगिकत्व भवति न वा ? तथा सामाचार्यादिक्ृतो भेदो भवति न वा ? इति प्रने उत्तरमू--गणभूता परस्पर वाचनाभेदेन सामाचार्या श्रपि कियान्‌ भेद सम्भाव्यते, तदुभेदे च कथ डिचद्‌ साम्भोगिकत्वसपि सम्भाव्यते । -नसेनप्रश्न, उल्लास २, प्रश्न ८ १ १८. सूयगडगसुत्त -प्रस्तावना, पृष्ठ-२८-३० १९ जदा य गणहरा सब्वे पब्व्जिता ताहे किर एगनिसज्जाए एगारस अगाणि चोहसहि चोहस पुब्वाणि, एव ता भगवता श्रत्था कहितो, ताहे भगवतो एगपासे सुत करे(र)ति त भ्रबखरेहि पदेहि वजणेहि सम, पच्छा सामी जस्स जत्तियों गणों तस्म तत्त्तिय झणुजाणति । आतीय सुहम्म करेति, तस्स महल्लमाउय, एत्तो तित्य होहिति ति” । उापावश्यकचूणि, प्ृष्ठ-३३७ २०. समवायागसूत्र, पृष्ठ-७ २१. देखिये--पुण्यविजयजी व जम्बूविजयजी द्वारा सम्पादित जैन आगम प्रन्थमाला के टिप्पण । २२. (क) जम्बूदीप प्रज्ञप्तिवृत्ति (ख) कल्पसूत्र- १९४ २३. (क) प्रज्ञापनासूत्र, पद १ (खि) त्रिचछ्टि-१-२-९६३ [ १६ ]




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