सर्वेश्वर का काव्य | Sarveshawar Ka Kavya Samvedna Aur Sampreshan

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Sarveshawar Ka Kavya Samvedna Aur Sampreshan by हरिचरण शर्मा - Haricharan Sharma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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न की लि, हंस हि -- कह , लि है कर .बाद 5/सर्वेश्वर का काव्य : संवेदना भ्ौर संप्रेपणो भीतर की प्रोर यात्रित हुश्रा है । नयी कविता में जो सामाजिक संदर्भ हैं वे त्रिमुखीं होकर झ्राये हैं. 1. समाज की खोखली स्थितियों के निरूपण में 2. सामाजिक दायित के रूप में 3. समाज-कल्याण के प्रेरक तत्वों के रूप में । सारतीय समाज ने युद्ध देखे हैं; उनमें हिस्सा भी लिया है । फलत: यह बाहर से स्वस्थ प्रतीत होता हुआ भी भीतर से रुगण होता गया है। सामाजिक भौर प्राथिक सम्बन्ों में हुए परिवर्तन से श्रीर नैतिक मान-मुल्यों में हुए फेर-बदल से समाज में रिक्ति बढ़ी है, विसंगतियाँ जन्मी हैं; झ्रादमी की स्थिति खोखली हुई है; बिवशत्ताएं' बड़ी हैं; जीवन-यापन के साधनों को जुटाने में प्रपंच, स्वार्थ श्रौर '्रष्टता दुगनी हुई है श्रौर इस तरह जिन्दगी श्रपेक्षाकृत श्रघिक जटिल हुई है । इन सभी स्थितियों पर नये कि की निगाह रही है पर कविता श्रपने समय का लेख सौर भावी के लिये शिलालेख भी बनती गई है । सम्ब्ता घ्रौर संस्कृति के बिखराब ने भी इस सकेतित रिक्‍्तता की सूची में कुछ पहलू जोड़े हैं । यथाथ॑ का पक्षधर भौर श्रपने समय का गन्नाहू कवि इस सबको श्रपनी म्राँखों के गोलक में भरता हुआ सृजनरत रहा है । हाँ; इस विदूपत्ता की तस्वीर कहीं व्यर्यों से रंजित; कहीं वैचारिक्रता से पोषित श्र कहीं मावना से झ्नुमीदित होकर नयी कविता में आई है । अ्रज्लेय सौर सर्वेश्वर में यह व्यंग्य से, भारती श्रौर गिरिजाकुमार में भावना से श्रौर भूक्तिदोध व कु बरनारायण में वैचारिकता से जुड़कर अभिव्यक्त हुई है । “सर्वेश्लर' की “पोस्टर श्र झादमी', 'एक प्यासी झ्रात्मा का गीत”, 'बीसवीं सदी के कवि ' झौर सौन्दर्य वोध' प्रादि कविताओं में सामाजिक खोखलेपन को देखा जा सकता है । मुक्तिबोध की 'ग्रँथेरे में' कविता भी झनिक सामाजिक स्थितियों के गहरे बिम्ब प्रस्तुत करती हुई जिन्दगी के वृहतु से बृहत्‌ गौर छोटे-से-छोटे श्राठामों को प्रकट करती है। इसमें यथार्थ के रंग चटख श्रौर तेज है । मानव-जीवन श्रौर समाज में व्याप्त इन विधिध यथार्थ रूपों का चित्र नयी कविता के सामाजिक पक्ष को ही पुष्ट करता है । सामा० जिक जीवन की विकृतियों मजबूरियों श्रौर असम्थताश्रों के स्पष्ट श्रौर खुले चित्र सी कविता में याये हूँ । मध्यवर्गीय जिन्दगी का प्रामारिएक दस्तावेज बनी यह कविता सही श्र्थों में अपने समय का साथंक लेख है । मध्यवर्ग श्र उसमें सी सिम्न- मध्यवर्ग--क्लकं या कम वेतन पाने वाले व्यक्ति पर ही नये कवियों की दृष्टि झधिक गई है । ठीक ही है यह तो वह वर्म है जो सर्वाधिक चस्त श्रोर संतप्त है ! सुबह से शाम तक कारखानों, दफ्तरों प्र विद्यालयों में काम करने वाला व्यक्ति जब शाम को घर लौटता है तो “विदेह' होता है । भारतमुषण की “विदेह', भ्रवंतकुमार पाषण की 'बम्बई का क्लकं', देवराज की 'क्लक, जगदीश गुप्त की “पहेली”, लक्ष्मीकात वर्मा की “सृतात्मा की चसीयत', अजय की “महानगर रात श्रौर सर्देश्वर की कसी विचित्र है यहं जिन्दगी” श्रादि कविताग्ों में इसी जिन्दगी के मुह बोलते चित्र है । छेवन एक उदाहरण देखिए




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