श्री अरविन्द का समाज दर्शन | Sri Arvind Ka Samaj Darsan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सकट के काल में समाज ददत 5 विषय में अधिकाधिक ज्ञान अजित किया हैं और वह स्वयं अपने अस्तित्व, अपने सनो- विज्ञान और इस ज्ञाव के परिणामों को प्राप्त करने के साधनों के रहस्पों को जानने का प्रयास करता है। उसने न केवल सुधारों का प्रस्ताव किया हैं बल्कि उनके लिए संघर्ष भी किया है। उसने अरा'जकतावाद, लिडीकेटवाद. समाजवाद इत्यादि अनेक राजनीतिक आर आर्थिक व्यवस्थाओं का विकास किया है। उसने विचारों अथवा संस्क्ृतियों का एक युद्ध छेड़ा है जिससे श्रमिकों का उत्थान हुआ है श्रौर स्त्रियों को वयस्क मताधिकार प्राप्त हुआ है। आधुनिक जनताओं की इस तीव्र प्रतिक्रिया से ही साम्यवाद, नाज़ीवाद और फाह्सीवाद इत्यादि को अत्यन्त हीब्र और स्तम्भित कर देने बाली सफलता मिली है । घर्तेसान संकट किन्तु, यह समस्त परिवतेंत, मानव के जीवन में आत्मनात्‌ और समस्वित नहीं हो सका हैं + संस्कृति अथवा उससे मिलता-जुलता तच्व जनतस्त्रीय तो बना है किस्तु ऊपर नही उठा है । शिक्षा ने मनुष्य को मानसिक सक्रियता तथा व्यवसाय, वौद्िक और सौंन्दर्याबमक सचेदनाएँ तथा आादशेंवाद की भावनाएँ प्रदान की हूँ किन्तु उसे रूपान्तरितत नही किया है। आधुनिक मनुष्य को सामान्य ज्ञाव और जनप्रिय विज्ञान के प्रति भारी आप हैं किन्तु वह कभी भी उनका समायोजन करने या. उन्हें आत्मसात्‌ करने का प्रथास नहीं करता । अधिक स्वतन्त्र और उम्मुक्त होने के बावजूद यह सब सक्रियता और संवेदनात्मकता अपरिष्कृत मानसिकता की परिचायक है । आधुनिक मनुष्य सुन सकता है और कर सकता है, यदि उसे ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित किया जाएं । आधुनिक लेखक, विचारक, वैज्ञानिक और कलारकर यूनानी सांस्कृतिक दास के समान हैं, जिसका का्ये रोमन परिवार में सबको प्रसन्न करना, सबका मनोरंजन करना और अपने मालिक की रुचियों तथा पसन्द पर ध्यान रखते हुए उसे प्रशिक्षण देना था । आज दंशेंन, कला और साहित्य एक अभूतपूर्व पैमाने पर सस्ते और व्यावसायिक बन गए हैं । मनुष्य के सामने मानव- समाज के एक स्थिर सुविधा भोगी, यन्त्रवत्‌. आदरशेद्वीन सामाजिक जीवन अथवा दु्ण्टिकोण मे बदल जाने का भंयकर खतरा उपस्थित है। श्री अरबिस्द के विरलेषण और दृष्टिकोण के अनुसार, “बतंमान काल में मानव-जाति एक विकासोन्मुख संकट से गुजर रही है जिसमे उसके भाग्य का एक चुनाव छिंपा हुआ है; क्योंकि एक ऐसी स्थिति था गई हैं जिसमें कि मानव-मस्तिष्क से कुछ दिशाओं में अत्यधिक विकास प्राप्त किया हैं, जबकि अन्य से उसका विकास अवरुद्ध और दिशाविह्वीन है तथा अ।गे मार्ग नही देख पाता । 2४ विकासात्मक संकट इस प्रकार श्री अरविन्द के अनुसार, हमारी सभ्यता का संकट वहूं नहीं हैं जोकि उसकी बाहुरी समस्पाओं में दिखिलाई पडता है । श्री अरविन्द ने उसे दार्शनिक खुप से देखा हैं, मनोवैज्ञानिक रूप से चिद्लेषण किया है और विकासवादी रूप से व्याख्या की है। बहू एक चिकासात्मक संकट है, मनुष्य के जीवन के वर्तमान सोपान पर निर्देशन करने में विवेक की से उत्पन सकट है. वतमान संकट की श्री अरविन्द की




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