प्रगति की राह | Pragati Ki Rah

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Pragati Ki Rah by गोविन्दवल्लभ पन्त - Govindvallabh Pant

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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११ हर प्रकार को मनोघत्ति से व्यवहार रखना पड़ेगा,” सोचते हुए पंडितजी बाहर झाये । “देखिए, एक बात है । आँख-कान की बात तो मेरी समस मेंनथ्ा गई । परन्तु मुँह केसे बंद करते हैं आप इनका ””” ““वह तुम्हारा काम है । खिला-पिलाकर भेजना इसे ।”? “ठीक दै । एक बात झ्च्छी की है आपने । स्कूल के हाते में सिफ फूलों के ही पेड़ लगाये हैं ।”' “पयच्छा जाओ । मेरे काम मे बाघा पढ़ती है ।”” “पंडित जी झापका स्वभाव और इन्तजाम देखकर तो रेरी भी इच्छा आपके स्कूल मे भरती हो जाने की हो रही है। पर दृड्डियाँ बहुत पक्की हो गई, मेरी लचक जाती रही ।”' हंसते हुए पडितजी द्रजे के भीतर चले गए । घर जाकर उसने लछमियाँ की भरती का समाचार पत्नी को सुना- कर कटड्टा--''बडी अच्छी राय दी पंडितजी ने । एक लोटा दूध दे ही आओ उन्हें झाज ।””




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