आज की दुनिया | Aaj Ki Duniya

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Aaj Ki Duniya by अमरनाथ विद्यालंकार - Amarnath Vidhyalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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यह दुनिया डे ज्ञगत की सीसा को खोजने निकला है, 'और इस झनन्त की राइ का राद्दी बना है। झपने इतिहास के प्रारम्भ में सतुप्य फे पास न ज्ञान था, न ज्ञान प्राप्त करने के पर्याप्त साधन थे। 'झपने चमे-चज्ुर्ओं से दहद्द इस जगत को देखता था। जंगल मे नाना प्रकार के ज्ञानवरों के नाना प्रकार के शब्दों को सुनता था । इनमें से कोई कोई बहुत डरावने थे, 'और कोई कोई बहुत भले 'जौर सुन्दर थे। घासमान में सूरज, चांद 'और तारागणा, प्रभात तर संध्या, दिन झौर रात बादल, वर्पा और विज्ञलली ये सब उसके लिये हर समय फे झचरज स्फौर 'अचम्से थे । इन्हें देख देखकर वद्द कभी अपनी पेटपूजा से निवृत्त हो कर बैठा कुछ सोचा करता । कभी कभी 'झासमान पर रंगों वी भिलमिल, खिली चांदनी की छटा, 'और टिमटिसाते तारों की झनन्तता को देखकर उसका हृदय आनन्द से नाच उठता था-- वे सब उसे इतने भले और सुन्दर प्रतीत होते थे । परन्सु फभी फभी काली राठो में मेघो की डरावनी 'झाकृति देख कर 'और विजली की कड़क सुन कर वदद थय से कांप उठता था । परन्पु स्यानन्द हो या भय, दोनों ही अवस्था मे ददद सोचा करता था कि आाद्धिर चदह सद क्या है ? क्यों है ? घने जंगलों से लुट॒फता पुटक्ता चह मेदानों सें लाया, हजारों सालों फे परिधम से उसने जंगलों को साझ करके लदलद्दाती खेदियों में ठपरदील किया । धीरे धीरे प्रप्दी का त्त नापने दी चेष्टा सें वद दुसरे घोर छोर में केल गया सौर जगद जगए घपनी दस्टियां धसाझर रहने लगा।




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