श्रीमद भगवदगीता में मनुष्य का स्वरूप एवम उसकी नियति | Srimad Bhagwatgeeta Men Manushy Ka Swaroop Evn Usaki Niyati

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Srimad Bhagwatgeeta Men Manushy Ka Swaroop Evn Usaki Niyati  by श्रुति सिंह - shruti Singh

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about श्रुति सिंह - shruti Singh

Add Infomation Aboutshruti Singh

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
दर्शन में है। इसका स्वरूप ज्ञानस्वरूप नहीं है, अपितु आनदस्वरूप भी है। जीवात्माओं का परमरूप मे पृथकत्व गीता को अभिमत नहीं है। यह एक “उत्तम पुरुष या पुरुषोत्तम” तथा सर्वोपरि आत्मा के अस्तित्व में विश्वास करती है तो भी जीवात्मा का स्वरूप और उसका प्रकृति के साथ सम्बन्ध, जैसा कि भगवदगीता मे. दिया गया है, साख्य दर्शन के प्रभाव को दर्शाता है। पुरुष केवल एक दर्शक या साक्षी है किन्तु कर्ता नहीं है। प्रकृति ही सब कुछ करती है। जो यह सोचता है कि “मैं करता हूँ वह आम में है। पुरुष और प्रकृति अथवा आत्मा तथा प्रकृति के परस्पर पार्थक्य को अनुभव कर लेना मनुष्य जन्म का लक्ष्य है। गुणो का सिद्धान्त स्वीकार किया गया है। “देवताओं के अन्दर भी इस पृथ्वी पर अथवा स्वर्ग मे ऐसा कोई नहीं है जो प्रकृति के तीन गुणों, अर्थात्‌ सतु, रजमु और तमसु, से स्वतन्त्र हो!” ये गुण एक त्रिगुणात्मक बन्धन है और जब तक हम इनके आधीन रहेंगे, हमें जन्म जन्मान्तर के चक्र में निरन्तर भ्रमण करते रहना पड़ेगा। मोक्ष तीनों गुणों से छुटकारा पाने का नाम है। गीता का उपदेश गीता का उपदेश है जीवन की समस्याओं को हल करना और न्यायोचित आचरण को प्रेरणा देना। प्रत्यक्ष रूप से ये एक नैतिक ग्रन्थ है, एक योग शास्त्र है। गीता का निर्माण एक नैतिक धर्म के युग में हुआ था। गीता में योग शब्द का व्यवहार किसी भी प्रकरणानुकूल अर्थों में क्यों न हुआ हो, यह समस्त ग्रन्थ में आदि से अन्त तक अपने कर्मपरक निर्देश को स्थिर रखता है। योग ईश्वर के पास पहुँचने की एक ऐसी शक्ति है जो विश्व पर शासन करती है, सम्बंध जोड़ने और परमसत्ता को स्पर्श करने का नाम है। यह न केवल आत्मा की विशेष शक्ति को अपितु हृदय, मन एव इच्छा की समस्त शक्तियो को ईश्वर के आधीन कर देती है। इस प्रकार से योग उस अनुशासन (अथवा आत्मनियन्त्रण) का नाम है जिसके द्वारा हम संसार के आधातों को सहन करके अपने को अभ्यस्त बना देते हैं। योग एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा लक्ष्य को प्राप्त किया जाता है। पातव्जलि का योग आत्मिक नियन्त्रण 74, 13. 20, और भी देखों वेदान्त सूत्र, 2, 1, 1 और उन पर शाकर भाष्य । साख्यकारिका, 62, भगवदुगीता, 13. 34 । 18. 40, 14 5 योगक्रियात्मक अभ्यास हैं और साख्य या ज्ञान से भिन्‍न है। श्वेताश्वतर उप०, “सांख्ययोगादिगभ्यम्‌” ज्ञान, अभ्यास के द्वारा जानने योग्य। योग का अर्थ कर्म है। गीता, 3-7; 51, 2; 9 28; 13 24 भगवान ने योग को उसकी अदुभुत शक्ति कहा 19.5; 10, 7:11-8 जो पदार्थ हमारे पास नहीं है वह योग द्वारा प्राप्त हो जाते हैं। 9 * 22 की» (9 हे ने न जा --




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now