जैन दर्शन के मौलिक तत्त्व | Jain Dharashan Ke Moulik Tatav Vol 2 (1960)

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Jain Dharashan Ke Moulik Tatav Vol 2 (1960) by मुनि नथमल - Muni Nathmal

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मुनि नथमल जी का जन्म राजस्थान के झुंझुनूं जिले के टमकोर ग्राम में 1920 में हुआ उन्होने 1930 में अपनी 10वर्ष की अल्प आयु में उस समय के तेरापंथ धर्मसंघ के अष्टमाचार्य कालुराम जी के कर कमलो से जैन भागवत दिक्षा ग्रहण की,उन्होने अणुव्रत,प्रेक्षाध्यान,जिवन विज्ञान आदि विषयों पर साहित्य का सर्जन किया।तेरापंथ घर्म संघ के नवमाचार्य आचार्य तुलसी के अंतरग सहयोगी के रुप में रहे एंव 1995 में उन्होने दशमाचार्य के रुप में सेवाएं दी,वे प्राकृत,संस्कृत आदि भाषाओं के पंडित के रुप में व उच्च कोटी के दार्शनिक के रुप में ख्याति अर्जित की।उनका स्वर्गवास 9 मई 2010 को राजस्थान के सरदारशहर कस्बे में हुआ।

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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ज़ेन दर्शन के मौलिक तत्त्व ः [8 ख्ागमर्न सद्धान्त माना है”* । फलिताये यह हु कि यथार्थशाता एवं यथार्थ वक्ता से हमें जो कुछ मिला, वही सत्य है। दार्शनिक परम्यश का इतिहास स्वतन्त्र बिचारकों का खयाल है कि इस दार्शनिक परम्परा के श्राघार पर ही भारत में झन्ध विश्वास जन्मा | प्रत्येक मनुष्य के पास जुद्धि है, तक है, श्रनुमव है, फिर बह क्यों ऐसा स्वीकार करे कि यह झमुक व्यक्ति या झसुक शास्त्र की वाणी है, इसलिए, सत्य ही है । बह क्यों न शपनी शान-शक्ति का लाभ उठाए । महात्मा बुद्ध ने अपने शिष्यों से कहा--किसी प्रन्थ को स्वतः प्रमाण न मानना, श्रन्यथा बुद्धि और श्रनुभव की प्रामाणिकता जाती रहेगी । _ इस उलकन को पार करने के लिए. हमें दशन-विकास के इतिहास पर विह॑ंगम इष्टि डालनी होगी । वैदिकों का दर्शन-युग उपनिषद्काल से शुरू होता है । श्राधुनिक-श्रन्वेपकों के मतानुसार लगभग चार हजार वर्ष पूर्व उपनिषदों का निर्माण होने लग गया था। लोकमान्य तिलकने मैश्युपनिपद्‌ का रचनाकाल ईसासे पर्व १८८० से १६८० के बीच माना है । बौद्धों का दार्शनिक युग ईसासे पूर्व अं शताब्दी में झुरू होता है । जेनों के उपलब्ध दर्शन का युग भी यही है, यदि हम भगवान्‌ पार्श्वनाथ की परम्परा को इससे न जोड़े । यहाँ यह बता देना झनावश्यक न होगा कि हमले जिस दार्शनिक युग का उल्लेख किया है, उसका दर्शन की उत्पत्ति से सम्बन्ध है । वस्तुदृत्या बह निर्दिष्टकाल श्रागम- प्रणयनकाल है। किन्तु दर्शन की उत्पत्ति श्रागमों से हुई है, इस पर थोड़ा आगे चल कर कुछ विशद रूप में बताया जाएगा | इसलिए, प्रस्तुत विषय में उस युग को दाशनिक युग की संज्ञा दी गई है । दार्शनिक प्रन्थों की रचना तथा पुष्ट प्रामाणिक परम्पराओं के अनुसार तो वैदिक, जैन श्र बौद्ध प्रायः संमी का दर्शन-युगं लगभग विक्रम की पहली शताब्दी या उससे एक शती पूर्व प्ारम्म होता है । इससे पहले का युग श्रागम-युग ठहरता हैं । उसमें ऋषि उपदेश देते गए और वे उनके उपदेश “श्रागम' बनते गए. । अपने-अपने अवतंक अऋषि को शत्य-द्रष्टा कहकर उनके 'अनुयायिकों द्वारा उनका समन किया




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