सन्निवेश -दो | Sannivesh-Do
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
6 MB
कुल पष्ठ :
287
श्रेणी :
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चन्द्रकिशोर शर्मा -Chandrakishor Sharma
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ज्ञान भारिल्ल - Gyan Bharill
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प्रेम सक्सेना - Prem Saxena
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आवागमन
* झजिश चंचल
ज्ञान का भवाह सिन्धु ! गौर तहों में बहुत गहरे तक पैठ जाने की
महत्वाकाक्षा ! गहराई तो पग-पग पर मिली, अधिक गहरे पंठने को जी
भी हुमा । जव कमी घारों के दपंण में देखा, तो अतरिम वरुण कक्ष के
साय-साथ बाहर के तट भी दिखाई देने लगे । हुतप्रम से रह गये प्राण |
तर्दों के आकर्पण नारों भोर से घेरते चले गये ।
इतना निर्जन एकार्त : और यह रस मरा संयीत !
“काम की खंजरी, क्रोध का मृदग, मोह की मुरली और लोम की पसा-
बज 1” ताल पर ताल छगती रही, धून पर धुन बरसती रही । अहनिय
चलता रहा यह तट का संगीत ! और थे यदेदवास शोर, खिलखिलाहटें,
भाघुयं मेरे मानस पटल पर ऐसे अक्िंत होते चले गये, जेसे किसी अनुमवी
संगपराध मे मिट्टी का सुग्दर सा मर्दिर बनाकर, उस पर नकली हीरे-मोती
जड़ दिये हों ।
जब कमी डरवकी लगाने को क्रम आया, हो सम्पूर्ण सिस्थु ही उयला-
उपला लगने लगा । अनायास ही ध्यानसय हो गया मैं ! ध्यानस्य स्थिति में
एक माकपेंक विम्व उतरा, आँखें मसद-मसल कर देखा, तो वह किसी भव्य
अनश्वर का नहीं, वरद एक सश्वर मिट्टी का अवशेष मात्र था । आास्या के
विशाल स्वर्ण थाछ मे महत्वहीन दुठन के अतिरिक्त कुछ मी तो नहीं था 1
एक ढैरन्सी ध्ुटन को बाजुओं में समेटे, दर्शकी की पक्ति से ट्रटकर मैं
अकेला धफका-थंका सा होकर एक संकरी पगडंडी पर बैठ गया ।
एक विशाल भीड़, अन्त कोलाहल । इस छोर से उस छोर तक आवाजें
हो आवाजें ! मैंगे सोचा, और मॉँखें मूंदकर अपने आारम-वोव से पूछा-- कंसा
है मदद अनन्त ! चारों ओर समाह्ति के पेरे हैं । न दर खुला है, न लिडकी ।
७ [3 सप्तिवेश-दी
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