सन्निवेश -दो | Sannivesh-Do

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Sannivesh-Do by चन्द्रकिशोर शर्मा -Chandrakishor Sharmaज्ञान भारिल्ल - Gyan Bharillप्रेम सक्सेना - Prem Saxena

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ज्ञान भारिल्ल - Gyan Bharill

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प्रेम सक्सेना - Prem Saxena

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आवागमन * झजिश चंचल ज्ञान का भवाह सिन्धु ! गौर तहों में बहुत गहरे तक पैठ जाने की महत्वाकाक्षा ! गहराई तो पग-पग पर मिली, अधिक गहरे पंठने को जी भी हुमा । जव कमी घारों के दपंण में देखा, तो अतरिम वरुण कक्ष के साय-साथ बाहर के तट भी दिखाई देने लगे । हुतप्रम से रह गये प्राण | तर्दों के आकर्पण नारों भोर से घेरते चले गये । इतना निर्जन एकार्त : और यह रस मरा संयीत ! “काम की खंजरी, क्रोध का मृदग, मोह की मुरली और लोम की पसा- बज 1” ताल पर ताल छगती रही, धून पर धुन बरसती रही । अहनिय चलता रहा यह तट का संगीत ! और थे यदेदवास शोर, खिलखिलाहटें, भाघुयं मेरे मानस पटल पर ऐसे अक्िंत होते चले गये, जेसे किसी अनुमवी संगपराध मे मिट्टी का सुग्दर सा मर्दिर बनाकर, उस पर नकली हीरे-मोती जड़ दिये हों । जब कमी डरवकी लगाने को क्रम आया, हो सम्पूर्ण सिस्थु ही उयला- उपला लगने लगा । अनायास ही ध्यानसय हो गया मैं ! ध्यानस्य स्थिति में एक माकपेंक विम्व उतरा, आँखें मसद-मसल कर देखा, तो वह किसी भव्य अनश्वर का नहीं, वरद एक सश्वर मिट्टी का अवशेष मात्र था । आास्या के विशाल स्वर्ण थाछ मे महत्वहीन दुठन के अतिरिक्त कुछ मी तो नहीं था 1 एक ढैरन्सी ध्ुटन को बाजुओं में समेटे, दर्शकी की पक्ति से ट्रटकर मैं अकेला धफका-थंका सा होकर एक संकरी पगडंडी पर बैठ गया । एक विशाल भीड़, अन्त कोलाहल । इस छोर से उस छोर तक आवाजें हो आवाजें ! मैंगे सोचा, और मॉँखें मूंदकर अपने आारम-वोव से पूछा-- कंसा है मदद अनन्त ! चारों ओर समाह्ति के पेरे हैं । न दर खुला है, न लिडकी । ७ [3 सप्तिवेश-दी




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