चतुर्विंशति जिन स्तवन | Chaturvishati Jin Satvan
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10 MB
कुल पष्ठ :
135
श्रेणी :
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No Information available about उमराब चन्द जरगढ-Umrabchand Jargadh
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)उत्कृष्ट अध्यात्मासत का राजस्थानी व गुजराती भाफा में पान कराने वाले
श्वेताम्बर समाज में तीन मुनिराज हुये हैं. । इनके विषय में योगहृष्टि समुरुचय
के छानुबादक मेरे मित्र ढाक्टर श्री भगवानदासजी मेहता लिखते हैं :--
“झानन्द्घनजी, यशोविजयजी और देवचन्द्रजी ये तीनों परमात्म दशेन
का साक्तात्कार किये हुये भक्त शिरोमणि महात्मा दो गये दूं । उनके परम
भावोल्लासमय अनुभव भावोदूगारों पर से इसकी सुप्रतीति दो जाती है
'विमल जिन दीठा लोयणे आज” “'दीठी हो प्रभु ! दीठी जग शुरु तुज”
“दीठो सुबिधि जिणंद समाधि रसे भर्यो रे” यद्द वचन उसकी साक्षी देते हैं ।
ये विरल विभूति रूप मद्दागीताथे मद्दात्मा बीतरागदशेन की अपूवे प्रभावना
करने त्राले मद्दाज्योतिघर हो गये हैं । इस भक्त त्रिमूर्ति ने अद्भत मक्तिरस
ओर उत्तम अध्यात्म योग का प्रवाह बददाकर जगत पर परम उपकार किया है ।
मत दर्शन के आप्रह से दूर रद्दने वाले ये विश्वप्राद्दी, विशाल दृष्टि बाले,
मा तत्वदृष्टा किसी एक सम्प्रदाय के दी नद्दीं सारे जगव
| ह
१“ब्ानन्द्घनजी और यशोविजयजी दोनों समकालीन थे । आनन्द्घनजी
जेसे संत का द्शेन-समागम यशोविजयजी के जीवन की एक क्रांतिकारी
विशिष्ट घटना थी । इन परम-अवधघूत-भाव-निम्रेथ झानन्दघनजी के दुशेन-
समागम् से इनको बहुत आत्मलाभ और अपूवं आत्मानन्द हुआ । इस परम
उपकार की स्मृति में श्री यशोबिजयजी ने मद्दागीताथ आनन्द्घनजी की
स्तुति रूप श्रष्टपदी की रचना की हे । उसमें उन्होंने परम आत्मोल्लास से
मस्त दशा में विचरते आनन्द्घनजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुये गाया है
कि-'परसमणि समान श्री आनन्द्घनजी के समागम से कोह जैसा मैं
यशोविजय सुबणे बना ! कैसी भव्य भावांजलि है! । '*इस भक्त चिमर्ति का _
आगम छोर न्याय विषय का ज्ञान धगाध था । आनन्द्घनजी के एक-एक
बचन के पीछे आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान व अनन्य तत्वचिंतन का समये
१. देखो प्रशावबोध मोकमाला शिक्षा 'प.ठ ८८-८६
रे. थहीं पु० ३११
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