आनन्दधन ग्रंथावली | Aananddhan Granthavali

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Aananddhan Granthavali by उमराब चन्द जरगढ-Umrabchand Jargadh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११ ) श्रच्छी सफलता मिली । जनता इनके पदों की झोर अत्यधिक श्राङृष्ट हई । ये पद हमारे विचार से एक साथ नहीं बनाये गये थे । इनका रचना काल भी लम्बा मालुम पड़ता है । एेसा लगता है कि समय-समय पर श्रलग-प्रलग स्थानों ' पर ये पद बनाये गये थे। चौत्रीसी की रचना पर विचार करने से तो यह श्रनुभव होता है कि चौवीसी की रचना के समय श्री झानन्दधन जैन श्रागम निष्णात हो छुके थे श्रौर साधना के उत्कृष्ट मार्ग पर श्रग्नसर थे । स्तवनों की गम्भीरता भी यही प्रकट करती है कि वह पूर्ण वयस्क तथा साधनारत थे । यह समय सं० १७०० के आप्त पास अथवा इससे कुछ श्रधिक होना चाहिये । जबकि वह प्रौढ़ भ्रवस्था के लगभग होंगे । इनकी अश्रवस्था के सम्बन्ध में विचार करते हुये इनकी रचनाओं के सम्पादकों ने लिखा है--“यह उपाध्याय श्री यशोविजयजी के समकालीन थे और श्री उपाध्याय जी का इनसे मिलन हुआ था। साथ ही श्री उपाध्यायजी से ये कुछ वयस्क्र भी थे। श्री उपोध्याय जी ने नकी स्तुति मे एक अष्टपदी की रचना भी की थी, जो इस प्रकार है :- प्रथम पद राग-कानडो मारग चलत লব जात, आनन्दघन प्यारे रहत आनन्द भरपूर | ताको सर्प भूप ब्व लोकतेन्यारो बरषत मुख पर नुर।१॥ सुमति सखी के संग नित नित दोरत कबहेँन होत ही दूर। 'जसविजय” कहे सुनो आनंदघन ! हम तुम मिले हजूर ॥२॥ द्वितीय पद आनंदधन को आनंद सुजश ही गावत रहत आनंद सुमता संग । सुमति सखी ओर नवल आनंदघन मिल रहे गंग-तरंग ॥१॥ मन मंजन करके निर्मल कियो है चित्त, तापर लगायो है अविह्‌ड रंग । 'जसविजय' कहै युनत ही देखो, सुख पायो भोत अभंग ।।२॥ तृतीय पद, राग~नायक्री, चम्पक ताल आनंद कोउ नहि पावै जोहई पावै सोद आनंदघन ध्या । आनंद कौन रूप कौन आनन्दघन, आनन्द गुण कौन लखावं ।।१॥।




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