चतुर्विंशति जिन स्तवन | Chaturvishati Jin Satvan

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Chaturvishati Jin Satvan by उमराब चन्द जरगढ-Umrabchand Jargadh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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उत्कृष्ट अध्यात्मासत का राजस्थानी व गुजराती भाफा में पान कराने वाले श्वेताम्बर समाज में तीन मुनिराज हुये हैं. । इनके विषय में योगहृष्टि समुरुचय के छानुबादक मेरे मित्र ढाक्टर श्री भगवानदासजी मेहता लिखते हैं :-- “झानन्द्घनजी, यशोविजयजी और देवचन्द्रजी ये तीनों परमात्म दशेन का साक्तात्कार किये हुये भक्त शिरोमणि महात्मा दो गये दूं । उनके परम भावोल्लासमय अनुभव भावोदूगारों पर से इसकी सुप्रतीति दो जाती है 'विमल जिन दीठा लोयणे आज” “'दीठी हो प्रभु ! दीठी जग शुरु तुज” “दीठो सुबिधि जिणंद समाधि रसे भर्यो रे” यद्द वचन उसकी साक्षी देते हैं । ये विरल विभूति रूप मद्दागीताथे मद्दात्मा बीतरागदशेन की अपूवे प्रभावना करने त्राले मद्दाज्योतिघर हो गये हैं । इस भक्त त्रिमूर्ति ने अद्भत मक्तिरस ओर उत्तम अध्यात्म योग का प्रवाह बददाकर जगत पर परम उपकार किया है । मत दर्शन के आप्रह से दूर रद्दने वाले ये विश्वप्राद्दी, विशाल दृष्टि बाले, मा तत्वदृष्टा किसी एक सम्प्रदाय के दी नद्दीं सारे जगव | ह १“ब्ानन्द्घनजी और यशोविजयजी दोनों समकालीन थे । आनन्द्घनजी जेसे संत का द्शेन-समागम यशोविजयजी के जीवन की एक क्रांतिकारी विशिष्ट घटना थी । इन परम-अवधघूत-भाव-निम्रेथ झानन्दघनजी के दुशेन- समागम्‌ से इनको बहुत आत्मलाभ और अपूवं आत्मानन्द हुआ । इस परम उपकार की स्मृति में श्री यशोबिजयजी ने मद्दागीताथ आनन्द्घनजी की स्तुति रूप श्रष्टपदी की रचना की हे । उसमें उन्होंने परम आत्मोल्लास से मस्त दशा में विचरते आनन्द्घनजी की मुक्त कंठ से प्रशंसा करते हुये गाया है कि-'परसमणि समान श्री आनन्द्घनजी के समागम से कोह जैसा मैं यशोविजय सुबणे बना ! कैसी भव्य भावांजलि है! । '*इस भक्त चिमर्ति का _ आगम छोर न्याय विषय का ज्ञान धगाध था । आनन्द्घनजी के एक-एक बचन के पीछे आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान व अनन्य तत्वचिंतन का समये १. देखो प्रशावबोध मोकमाला शिक्षा 'प.ठ ८८-८६ रे. थहीं पु० ३११




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