श्रावकबनिता बोधिनी | Shavkabnita Bodhini

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Shavkabnita Bodhini by जयदयालमल्ल जैन - Jaidayalmall Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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रद दान देते तो अपना अहो भाग्य समकते थे. यदि किसी साधु व उत्तम श्रावकका संयोग न मिले तो वे अपनी अआत्मनिन्‍्दाकर साधुओंके भोजन समयको उल्लंघ्य आप भोजन करते थे. उनको यह बात अच्छीतरह मालूम थी कि य्रहस्थीका घर घट्कर्मीकी आरंभी हिंसाके कारण स्मशान समान है सो बिना अतिथि संविभागके कदापि सफल और दारू नहीं दोसक्ता. वलेमानमें जैनियोंकी खानपान क्रिया इतनी नष्ट भ्रष्ट होरही है कि यदि थोड़े भी संयमका थारी, झयुरू और सयोदापूवेक भोजन करनेवाला एक भी साधर्मी सजन कमेयोग से किसीके घर आजावे तो उसके भोजन योग्य सामग्रीका मिलना कठिन होजाता है. जैसे तेसे साम- ऑीका मेल भी मिला दिया जाय तो क्रियापवेक भोजन तय्यार करनेवालोंका अभाव पायाजाता हे क्योंकि प्रायः ग्हस्थस्त्रियां क्रियापूवेक रसोई की विधिसे अन- जान है. ऐसी अवस्थामें यदि दो चार संयमी पुरुष किसी स्थानपर आजायं तो कहिये उनको इफुरू भोजन की प्रासि केसे हो ? बहुत खेदके साथ कहना पड़ता है कि ऐसेही दोषोंसे हस निकृछकालमें साधुब्रतको धारना अति कठिन होगया है. यहांतक कि को कुक घ्रतके घारनेका भी साहस नहीं करता. भाइयों ! इसी कारण




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