पदार्थवाद | Padarthavad

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Padarthavad by श्री रामचंद्र जैन - Shri Ramchandra Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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८ पदाथवाद कि दोनों में मोलिक और क्रान्तिकारी भेद है । श्रावक का व्रत देश- बिरति ब्रत है । श्रावक उसे चाहे कितने ही परमोत्कृष्ट रूप को ले जायें किन्तु उसका ब्रत देश-विरति ब्रत ही कहछायेगा यहाँ तक कि प्रतिमाघारी श्रावक का ब्रत भी देश-विरति व्रत ही है। सत्कायबाद के सिद्धान्त के अनुसार देश-विरति ब्रत से देश- बिरति की ही उत्पत्ति हो सकती है सब-विरति ब्रत की कदापि नहीं । यदि देश विरति घ्रत को सब बिरति ब्रत का स्वरूप प्राप्त करना है तो जोव को गुणात्मक परिवतन करना होगा केवल मात्र परिमाण में हो नहीं किन्तु गुण में भी । देश-विरति ब्रत से सवब-विरति त्रत की ओर गति महान क्रान्तिकारी परिवतन की सूचक है । नवमें गुणस्थानक तक ट्व प दसबं शुणस्थानक तक राग और ग्यारहव गुणस्थानक तक जीव में मोह की स्थिति रहती है । जो जीव के साथ अनादिकाछ से चढा आ रहा था उसका सबधा नाश होता है। है नहीं में परिवर्तित हो गया । यही दशा राग और मोह की भी होती है । गुणात्मक सत्कायंबादू के सिद्धान्त में इस प्रकार दै से नहीं और नहीं से हे में परिवतन होने का पृण अवकाश है । वास्तव में यह दे से नहीं और नहीं से है की उतत्ति है ही नहीं क्योंकि स्थितियों के परिवतन से उत्पाद की सत्ता निरन्तर परिवर्तित होती है और एक उत्पाद का व्यय उसके पू्वर्ती उत्पाद का व्यय नहीं किन्तु नव्य स्थापित उत्पाद का ही व्यय है ।




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