पंडित जी | Pandit Ji
लेखक :
अशोक कुमार जैन - Ashok Kumar Jain,
कपूरचन्द जैन - Kapoorchand Jain,
नीरजा जैन - Niraja Jain,
प्रेमचंद जैन - Premchand Jain
कपूरचन्द जैन - Kapoorchand Jain,
नीरजा जैन - Niraja Jain,
प्रेमचंद जैन - Premchand Jain
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
11 MB
कुल पष्ठ :
260
श्रेणी :
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अशोक कुमार जैन - Ashok Kumar Jain
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कपूरचन्द जैन - Kapoorchand Jain
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नीरजा जैन - Niraja Jain
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प्रेमचंद जैन - Premchand Jain
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डा० अशोक जैन का विचार था कि पडित जी से जुडे समाजोपयोगी तथा हितकारी अधिकतम प्रसगो
का समावेश इस पुस्तक मे किया जा सके। ऐसा विषयाधिक्य के कारण असभव है-और था| चूकि पडित
जी के साहित्य-सर्जन का क्षेत्र जैन धर्म और जैन समाज मात्र नहीं था। उन्होने राष्ट्र की भलाई के लिए
अपने विचार-मन्थन से उपजे नवनीत को हिन्दी-निबन्धो के माध्यम से प्रस्तुत किया । दूसरी ओर स्वतन्त्रता
आन्दोलन के बाद छूआछूत से लेकर जातिगत समस्याओ पर 'हरिजन-मन्दिर-प्रवेश' आदि के रुप मे
उग्र-प्रदर्शन होने शुरु हो गए थे। जैन मन्दिरो मे प्रवेश करने को लेकर भी समाज के सामने ऊहापोह का
वातावरण बन गया। पडित जी का अध्ययन-मनन-चिन्तन सभी को लाजवाब कर देता था। वैसे गजरथ
सचालन, दस्सा-पूजा अधिकार अन्यान्य प्रमुख कार्यों के सन्दर्भों का किसी न किसी आलेख मे चर्चा ने स्थान
पा लिया है। परन्तु वर्ण, जाति और धर्म के महत्त्वपूर्ण सन्दर्भ पर प्रकाश नहीं पड़ सका है। मेरी दृष्टि मे
उसका उजागर किया जाना बहुत जरुरी है। महत्त्वपूर्ण होने के साथ-साथ यह रोचक घटना भी है | थोड़े
विषय-विस्तार को दृष्टिओझल करके क्षमा करेगे। इस विषय मे मैं पडित जी के मूलकथन द्वारा ही विवरण
प्रस्तुत कर रहा हूँ। विशेष अध्ययन एव जानकारी के लिए पड़ित जी की हिन्दी पुस्तक 'वर्ण, जाति और ६
र्म' का अवलोकन कर सकते है। पडित जी ने लिखा है “भारतवर्ष मे जाति प्रथा बहुत पुरानी है।... यह
तो स्पष्ट ही है कि जैन धर्म का जाति-धर्म के साथ थोडा भी सम्बन्ध नहीं है | मूल जैन साहित्य इसका साक्षी
है। किन्तु मध्यकाल मे जातिधर्म का व्यापक प्रचार होने के कारण यह भी उससे अछूता न रहा सका।
मान्यवर साहू जी और उनकी धर्मपत्नी सौ० रमारानी जी विचारशील दम्पत्ति रहे है। उनकी मान्यता थी कि
जैन धर्म ऊँचनीच के भेद को स्वीकार नहीं करता और इसीलिए उनका यह स्पष्ट मत था कि जो धर्म
मनुष्य-मनुष्य मे भेद करता है, वह धर्म ही नहीं हो सकता । साहू जी ने इस पीड़ा को उस समय बडे ही
मार्मिक और स्पष्ट शब्दों मे व्यक्त किया था जब उन्हे पूरे जैन समाज की ओर से मधुवन मे श्रावक शिरोमणि
के सम्मानपूर्ण पद से अलकृत किया था। उनके वे मर्मस्पर्शी शब्द आज भी मेरे स्मृतिपटल पर अकित है।
उन्होने कहा था, “समाज एक ओर तो मेरा सत्कार करना चाहता है और दूसरी ओर मेरी उन उचित बातो
की ओर जरा भी ध्यान देना नहीं चाहती जिसके बिना आज हमारा धर्म (जैन धर्म) निष्प्राण बना हुआ है |
फिर भला उपस्थित समाज ही बतलाये कि मे ऐसे सम्मान को लेकर क्या करूँगा | मुझे सम्मान की चाह नही
है। मै तो उस धर्म की चाह करता हूँ जो भेदभाव के बिना मानवमात्र को उन्नति के शिखर पर पहुँचाता है |
आगे पडित जी ने विस्तार से “वर्ण जाति और धर्म' के विषय मे लिखा है “वस्तुत यह १६६३ से
लगभग पॉच-छह वर्ष पूर्व ही लिखी गई थी... कुछ ऐसी परिस्थिति निर्मित हुई जिसके कारण यह प्रकाश
मे आने से रुकी रही।. जिस समय यह पुस्तक लिखी गयी यदि उसी समय प्रकाशित हो जाती हो कई
दृष्टियो से लाभप्रद होता ।” अन्त मे समापन पर उन्होने लिखा है, “मान्य साहू अशोक कुमार जी कुछ समय
पूर्व हस्तिनापुर मेरे निवास स्थान पर पधारे थे। उनसे मैने इस पुस्तक के पुन प्रकाशन का निवेदन किया
था| उन्होने उसे नोट भी कर लिया था । प्रस्तुत सस्करण उसी का परिणाम है।. मै चाहता हूँ कि भारतीय
ज्ञानपीठ उसका विशेष प्रचार करे ताकि समाज मे और वर्तमान त्यागियो मे फैली मान्यता के बदलने मे
सहायता मिले | जैनधर्म पर लगा यह कलक घुलना ही चाहिए ऐसा मै मानता हूँ। (१६८६ स से)
दरअसल मेरा मानना यह रहा है कि एक जाग्रत रचनाकार धर्म, सस्कृति, साहित्य, इतिहास आदि
सब पर अपनी बेबाक राय रखता है। सि०्प० फूलचन्द्र शास्त्री जाग्रत रचनाकार थे। पाठक उनके
निबन्ध-सकलन सत्यान्वेषी एकादश' शीर्षक पुस्तक मे ग्यारह सामाजिक धार्मिक राजनीतिक आदि विषयों
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